________________
२८८
महापुराणे उत्तरपुराणम लक्ष्मणाक्रमविक्रान्तिविजितारातिसनिभाः । छायामात्मनि सल्लीनां प्रकुर्वन्ति महीरुहः ॥१५॥ वैराज्यपरिवारो वा मृगरूप: सशावकः । क्वाप्य लब्धाश्रयस्तप्तो प्राम्यतीतस्ततोऽपि च ॥१२॥ इति चेतोहरैः सीतां मोदयन् स तया सह । शचीदेव्येव देवेशः कृत्वा वनविनोदनम् ॥ १४३॥ . किञ्चित् खिज्ञामिवालक्ष्य तां जलाशयमासदत् । तत्र सिञ्चन् प्रियां शीतैर्यन्त्रमुक्तपयःकणैः ॥ १४४ ॥ ईषग्निमीलितालोलनयनेन्दीवरोज्ज्वलम् । तद्वक्त्रकमलं पश्यझसावल्पं तदातुषत् ॥ १४५॥ २वक्षोदन्नमसौ वारि प्राविशत्सस्मितां प्रियाम् । परिरम्भोत्सुका विद्वान् रङ्गितज्ञा हि नागराः॥१४६॥ भ्रमराः काकं मुक्त्वा कान्तास्याब्जेऽपतन्समम् । तैराकुलीकृतां दृष्ट्वा खेदी हादी च सोऽभवत् ॥१४॥ एवं जले चिरं उरन्वा तत्रापूर्य मनोरथम् । सान्तःपुरो वने रम्यप्रदेशे स्थितिमावजत् ॥ १४८ ॥ तदा सूर्पणखागत्य तयोर्नृपतनूजयोः । वीक्ष्यमाणाऽतुलां लक्ष्मीमनुरक्ता सविस्मयम् ॥१४९ ॥ प्रभूतप्रसवानम्रकम्राशोकमहीरुहः । अधस्था सुस्थितां सीतां हरिन्मणिशिलातले ॥ १५ ॥ वनलक्ष्मीमिवालोक्य भूष्यमाणां सखीजनैः । युक्तमेव खगेशस्य प्रेमास्यामिति वादिनी ॥ १५ ॥ बभूव स्थविरा रूपपरावर्तनविद्यया । सीताविलाससन्दर्शसम्भूतबीडयेव सा ॥ १५२॥ तद्पं "वर्णयन्तीत्थं सकौतुकममन्वत । स्वबुद्धिकौशलादेतत्कृत रूपं न वेधसा ॥ १५३ ॥ यादृच्छिकं न चेदन्यत्किमकारीति नेहशम् । शेषदेव्यो जराजीणों तां दृष्टा यौवनोखताः ॥ १५४ ॥
किरणोंसे सबको जला रहा है सो ठीक ही है क्योंकि मस्तक पर स्थित हुआ उग्र प्रकृतिका धारक किसकी शान्तिके लिए होता है ? ॥ १४०॥ लक्ष्मणके आक्रमण और पराक्रमसे पराजित हुए शत्रुके समान ये वृक्ष अपनी छायाको अपने आपमें लीन कर रहे हैं ।। १४१॥ शत्रु राजाओंके परिवारोंके समान इन बच्चों सहित हरिणोंको कहीं भी आश्रय नहीं मिल रहा है इसलिए ये सन्तप्त होकर इधरउधर घूम रहे हैं । १४२ ॥ इस प्रकार चित्त हरण करनेवाले शब्दोंसे सीताको प्रसन्न करते हुए रामचन्द्र, इन्द्राणीके साथ इन्द्रके समान, सीताके साथ वन-क्रीडा करने लगे। १४३ ।। रामचन्द्र सीताको कुछ खेद-खिन्न देख सरोवरके पास पहुंचे और सीताको यन्त्रसे छोड़ी हुई जलकी ठण्डी बूंदोंसे सींचने लगे ॥ १४४ ॥ उस समय कुछ-कुछ बन्द हुए चश्चल नेत्ररूपी नीलकमलोंसे 'उज्ज्वल सीताका मुख-कमल देखते हुए रामचन्द्रजी बहुत कुछ सन्तुष्ट हुए थे ॥ १४५ ॥ वे बुद्धिमान रामचन्द्रजी आलिङ्गन करने में उत्सुक तथा मन्द हास्य करती हुई सीताके समीप छाती तक पानी में घस . गये थे सो ठीक ही है क्योंकि चतुर मनुष्य इशारोंको अच्छी तरह समझते हैं ।। १४६ ।। वहाँ बहुतसे भ्रमर कमल छोड़कर एक साथ सीताके मुखकमल पर आ झपटे उनसे वह व्याकुल हो उठी। यह देख रामचन्द्रजी कुछ खिन्न हुए तो कुछ प्रसन्न भी हुए ॥ १४७॥ इस तरह काल तक क्रीड़ा कर और मनोरथ पूर्ण कर रामचन्द्रजी अपने अन्तःपुरके साथ वनके किसी रमणीय स्थानमें जा बैठे ॥१४८॥ उसी समय वहाँ शूर्पणखा आई और दोनों राजकुमारोंकी अनुपम शोभाको बड़े आश्चर्यके साथ देखती हुई उन पर अनुरक्त हो गई ।। १४६ ।। उस समय सीता बहुतभारी फलोंके भारसे झुके हुए किसी सुन्दर अशोक वृक्षके नीचे हरे मणिके शिला-तल प थी, आस-पास
खियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं जिससे वह वन-लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी, उसे देख शूर्पणखा कहने लगी कि इसमें रावणका प्रेम होना ठीक ही है ॥१५०-१५१॥ रूपपरावर्तन विद्यासे वह बुढ़िया बन गई उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो सीताका विलास देखनेसे उत्पन्न हुई लज्जाके कारण ही उसने अपना रूप परिवर्तित कर लिया हो ।। १५२ ॥ कवि लोग उसके रूपका ऐसा वर्णन करते थे, और कौतुक सहित ऐसा मानते थे कि विधाताने इसका रूप अपनी बुद्धिकी कुशलतासे नहीं बनाया है अपितु अनायास ही बन गया है। यदि ऐसा न होता तो वह इसके समान ही दूसरा रूप क्यों नहीं बनाता ? ॥ १५३ ॥ सीताको छोड़ अन्य रानियाँ यौवनसे उद्धत हो, वृद्धावस्थाके कारण अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण दिखनेवाली उस बुढ़ियाको देख हँसी करती हुई
१ लब्ध्वा ल०।२ वक्षम्प्रमाणम् । ३ रत्वा क०, प० । ४ वर्णयतीत्थं ल०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org