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अष्टषष्टं पर्व
२८७ मध्येवन परिक्रम्य वीक्ष्य नानावनस्पतिम् । सप्रसूनां सहासां वा सरागां वा सपल्लवाम् ॥ १२७ ॥ लतां समुत्सुकस्तन्वीं तन्वीमन्यामिव प्रियाम् । आलोकमानो जानक्यालोकितः स सकोपया ॥ १२८ ॥ कुपितेयं विना हेतोः प्रसाद्येत्येवमब्रवीत् । पश्य चन्द्रानने भृङ्ग लतायाः कुसुमे भृशम् ॥ १२९ ॥ सवास्ये मामिवासक्त तत्र तर्पयितु स्वयम् । रागं पिण्डीद्रमाः पुष्पैरुनिरन्तीव नूतनैः ॥ १३०॥ मम नेत्रालिनोः प्रीत्यै वध्वैभिश्चित्रशेखरम् । स्वहस्तेन प्रिये मेऽमूनलङ्कर शिरोरुहान् ॥ १३॥ एतत्पुष्पैः प्रवालैश्च भूषणानि प्रकल्पये। तवापि त्वं विभास्येतैर्जगमेव लताऽपरा ॥ १३२॥ इत्युक्तिभिरिमा मूकीभूतामालोक्य कामिनीम् । पुनश्चैवमभाषिष्ट मृष्टेष्टवचनो नृपः॥ १३३ ॥ त्वद्वक्त्रं दर्पणे वीक्ष्य चक्षुषी ते कृतार्थके । त्वदास्यसौरभेणेव तृप्ता ते नासिका भृशम् ॥ १३ ॥ स्वच्छब्यगेयसल्लापैः कौँ पूर्णरसौ तव । तव विम्बाधरस्वादास्वजिह्वान्यरसास्पृहा ॥ १३५॥ परिरभ्य करौ तृप्तौ तव त्वत्कठिनस्तनौ । मनोऽपीन्द्रियसंतृप्ता संतृप्तं नितरां प्रिये ॥ १३६ ॥ स्वस्यामेवं स्वयं तृप्ता सिद्धाकृतिरिवाधुना । कोपस्ते युक्त एवेति सीतां स चतुरोक्तिभिः ॥ १३७॥ ततः प्रसन्नया साद्ध सुखं सर्वेन्द्रियोद्भवम् । सम्प्राप्य नूतनं भूपः कोपोऽपि सुखदः कचित् ॥ १३८ ॥ तत्रैव लक्ष्मणोऽप्येवं स्वप्रियाभिः सहारमत् । दृष्टौ तदा मुदा कामस्तेभ्योऽभ्यर्थमदः सुखम् ॥ १३९ ॥
एवं रामश्चिरं 'रन्त्वा कान्ते पश्य रविः करैः । सर्वान् दहति मूर्द्धस्थस्तीवः कस्यान शान्तये ॥ १४०॥ साथ गये हुए थे ।। १२६ ॥ वहाँ वे वनके बीचमें घूम-घूमकर नाना वनस्पतियोंको देख रहे थे। वहाँ एक लता थी जो फूलोंसे सहित होनेके कारण ऐसी जान पड़ती थी मानों हस ही रही हो तथा पल्लवोंसे सहित होनेके कारण ऐसी मालूम होती थी मानो अनुरागसे सहित ही हो। वह पतली थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कृश शरीरवाली कोई दूसरी स्त्री ही हो । वे उसे बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे। उस लताको देखते हुए रामचन्द्रजीके प्रति सीताने कुछ क्रोध युक्त होकर देखा। उसे देखते ही रामचन्द्रने कहा कि यह विना कारण ही कुपित हो रही है अतः इसे प्रसन्न करना चाहिए। वे कहने लगे कि हे चन्द्रमुखि ! देख, जिस प्रकार मैं तुम्हारे मुख पर आसक्त रहता हूं उसी प्रकार इधर यह भ्रमर इस लताके फूल पर कैसा आसक्त हो रहा है ? उधर ये अशोक वृक्ष स्वयं सन्तुष्ट करनेके लिए नये-नये फूलोंके द्वारा मानो अपना अनुराग ही प्रकट कर रहे हैं ॥१२७-१३०।। हे प्रिये ! मेरे नेत्ररूपी भ्रमरोंको सन्तुष्ट करनेके लिए तू इन फूलोंके द्वारा चित्रविचित्र सेहग बाँधकर अपने हाथसे मेरे इन केशोंको अलंकृत कर । मैं तेरे लिए भी इन पुष्पों और प्रवालोंसे भूषण बनाता हूं। इन फूलों और प्रवालोंसे तू सचमुच ही एक चलती-फिरती लताके समान सुशोभित होगी ।। १३१-१३२ ॥ इस प्रकार रामने यद्यपि कितने ही शब्द कहे तो भी सीता क्रोधवश चुप ही बैठी रही। यह देख मिष्ट तथा इष्ट वचन बोलनेवाले राम फिर भी इस प्रकार कहने लगे। १३३ ॥ हे प्रिये । तेरे नेत्र दर्पणमें तेरा मुख देखकर कृतकृत्य हो चके हैं और तेरी नाक तेरे मुखकी सुगन्धिसे ही मानो अत्यन्त तृप्त हो गई है ॥ १३४ ॥ तेरे सुनने तथा गाने योग्य उत्तम शब्द सुनकर कान रससे लबालब भर गये हैं। तेरे अधर-विम्बका स्वाद लेकर ही तेरी जिह्वा अन्य पदार्थोके रसप्ते निःस्पृह हो गई है ॥ १३५ ॥ तेरे हाथ तेरे कठिन स्तनोंका स्पर्श कर सन्तुष्ट हो गये है इसी प्रकार हे प्रिये ! तेरी समस्त इन्द्रियोक सन्तुष्ट हो जानेसे तेरा मन भी खब हो गया है । इस तरह तू इस समय अपने आपमें तृप्त हो रही है इसलिए तेरी आकृति ठीक सिद्ध भगवान के समान जान पड़ती है फिर भी हे प्रिये ! तुझे क्रोध करना क्या उचित है। इस प्रकार चतुर शब्दोंके द्वारा रामने सीताको समझाया। तदनन्तर प्रसन्न हुई सीताके साथ राजा रामचन्द्रने समस्त इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए अभूतपूर्व सुखका अनुभव किया । सो ठीक ही है क्योंकि कहीं-कहीं क्रोध भी माखदायी हो जाता है। १३६-१३८॥ वहीं पर लक्ष्मण भी इसी तरह अपनी स्त्रियोंके साथ रमण करते थे। उस समय कामदेव बड़े हर्षसे उन सबके लिए इच्छानुसार सुख प्रदान करता था ॥१३६।। इस प्रकार रामचन्द्र चिरकाल तक क्रीड़ा कर सीतासे कहने लगे कि हे प्रिये ! यह सर्य अपनी
१ रत्वा घ०।
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