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अष्टषष्टं पर्व
नेत्रगोचरमात्राखिलानासुखदायिनीम् । जेतु सम्भोगरत्यन्ते शक्तां मुक्तिवधूमपि ॥ ९ ॥ स्वामनारत्य योग्यां' ते त्रिखण्डाखण्डसम्पदम् । स्त्रीरलं स्वात्मजां लक्ष्मीमिवादान्मिथिलाधिपः ॥१९॥ तस्य भोगोपभोगैकनिष्ठस्य विपुलश्रियः । पार्वे स्थित्वा सहिष्णुत्वाद्भवन्तमवलोकितुम् ॥१०॥ इह प्रेम्णागतोऽस्मीति नारदोक्त्या खगेशिना । इच्छा पश्यति नो चक्षुः कामिनामित्युदीरितम् ॥१०॥ सत्यं प्रकुर्वता सद्यः सीतासम्बन्धवाक्श्रुतेः । अनङ्गशरसम्पाताजर्जरीकृतचेतसा ॥ १०२॥ धन्यान्यनन सा स्थातु योग्या भाग्यविहीनके। मन्दाकिन्याः स्थितिःच स्यात्प्रविहत्य महाम्बुधिम्॥१०॥ 'बलात्कारेण तां तस्मादपहृत्यातिदुर्बलात् । रममालामिवालोला करिष्यामि ममोरसि ॥ १०४॥ इति कामाग्नितप्तेन तेन पापेन संसदि । स्वस्यामगार्यनार्येण दुर्जनानामियं गतिः ॥ १०५॥ स नारदः पुनस्तत्र प्रदीप्तं कोपपावकम् । प्रज्वालयितुमस्येदमाचचक्षेऽतिपापधीः ॥१०६ ॥ परिप्राप्तोदयो रामो महाराज्यपदे स्थितः । यौवराज्यपदे तस्य लक्ष्मणोऽस्थात्सहोद्भवः ॥ १०७ ॥ वाराणसी प्रविष्टाभ्यां ताभ्यां विश्वनरेश्वराः । स्वसुतादानसम्मानिताभ्यां सम्बन्धमादधुः ॥ १.८॥ ततस्ते तेन रामेण लक्ष्मणाविष्कृतौजसा । न युद्धं युज्यतेऽस्माभिस्त्यज्यतां विग्रहाग्रहः ।। १०९ ॥ इत्येतदुक्तमाकर्ण्य कुपितस्मितमुद्वहन् । मत्प्रभावं मुने मंच श्रोष्यसीति विसृज्य तम् ॥ ११०॥
मन्त्रशालां प्रविश्यात्मगतमित्थममन्यत । उपायसाध्यमेतद्धि कार्य नहि बलात्कृते ॥ १११ ॥ सम्पुलसे ही मानो उसका शरीर बनाया गया है, वह नेत्रों के सामने आते ही सब जीवोंको काम सुख प्रदान करती है और सम्भोगसे होनेवाली तृप्तिके बाद तो मुक्तिरूपी स्त्रीको भी जीतने में समर्थ है । वह स्त्रीरूपी रत्न सर्वथा तुम्हारे योग्य था परन्तु मिथिलापतिने तीन खण्डकी अखण्ड सम्पदाको धारण करनेवाले तुम्हारा अनादर कर रामचन्द्र के लिए प्रदान किया है ॥६४-६६ ॥ भोगोपभोगमें निमग्न रहनेवाले तथा विपुल लक्ष्मीके धारक रामके पास रह कर मैं आया हूँ। मैं उसे सहन नहीं कर सका इसलिए आपके दर्शन करनेके लिए प्रेमवश यहाँ आया हूँ। नारदजीकी बात सुनकर विद्याधरोंके राजा रावणने 'कामी मनुष्योंकी इच्छा ही देखती है नेत्र नहीं देखते हैं। इस लोकोक्तिको सिद्ध करते हुए कहा। उस समय सीता सम्बन्धी वचन सुननेसे रावणका चित्त कामदेवके वाणोंकी वर्षासे जर्जर हो रहा था। रावणने कहा कि वह भाग्यशालिनी मेरे सिवाय अन्य भाग्यहीनके पास रहनेके योग्य नहीं है। महासागरको छोड़कर गङ्गाकी स्थिति क्या कहीं अन्यत्र भी होती है ? मैं अत्यन्त दुर्बल रामचन्द्रसे सीताको जबर्दस्ती छीन लाऊँगा और स्थायी कान्तिको धारण करनेवाली रत्नमालाके समान उसे अपने वक्षःस्थल पर धारण करूँगा ।। १००-१०४॥ इस प्रकार कामाग्निसे सन्तप्त हुए उस अनार्य-पापी रावणने अपनी सभामें कहा सो ठीक ही है क्योंकि दुर्जन मनुष्योंका ऐसा स्वभाव ही होता है ॥१०५ ॥
तदनन्तर पाप-बुद्धिका धारक नारद, रावणकी प्रज्वलित क्रोधाग्निको और भी अधिक प्रज्वलित करनेके लिए कहने लगा कि जिसका ऐश्वर्य निरन्तर बढ़ रहा है ऐसा राम तो महाराज पदके योग्य है और भाई लक्ष्मण युवराज पदपर नियुक्त है ।। १०६-१०७ ॥जबसे ये दोनों भाई बनारसमें प्रविष्ट हुए हैं तबसे समस्त राजाओंने अपनी-अपनी पुत्रियाँ देकर इनका सम्मान बढ़ाया है और इनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है॥१०८॥ इसलिए लक्ष्मणसे जिसका प्रताप बढ़ रहा है ऐसे रामचन्द्र के साथ हमलोगोंको युद्ध करना ठीक नहीं है अतः युद्ध करनेका आग्रह छोड़ दीजिये ॥१०६ ॥ नारदकी यह बात सुनकर रावण क्रोधित होता हुआ हँसा और कहने लगा कि हे मुने! तुम हमारा प्रभाव शीघ्र ही सुनोगे । इतना कह कर उसने नारदको तो विदा किया और स्वयं मन्त्रशालामें प्रवेश कर मनमें ऐसा विचार करने लगा कि यह कार्य किसी उपायसे ही सिद्ध करनेके योग्य है, बलपूर्वक सिद्ध करने में इसकी शोभा नहीं है । विद्वान् लोग उपायके द्वारा बड़ेसे बड़े पुरुषकी भी लक्ष्मी हरण कर लेते हैं। ऐसा विचार उसने मन्त्रीको बुलाकर कहा कि राजा दशरथके लड़के राम
१ योग्यं ल०।२ बलात्कारेण तस्मा-ल। ३ पापेन तेन क०, प० । ४ विश्वनृपेश्वराः म०, ल ।
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