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अष्टषष्ट पर्व
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का त्वं वद कुतस्त्या वेत्यवोचन्हासपूर्वकम् । उद्यानपालकस्याहं मातात्रैवेति सा पुनः ॥ १५५ ॥ तासां चित्तपरीक्षार्थमिमां वाचमुदाहरत् । युष्मदपुण्यभागिन्यो मान्याः सन्त्यन्ययोषितः॥ १५६ ॥ यस्मादाभ्यां कुमाराभ्यां सह भोगपरायणाः। युष्माभिः 'प्राक्कृतं किं वा पुण्यं तन्मम कथ्यताम् ॥१५७॥ तत्करिष्यामि येनास्य राज्ञी भूत्वा महीपतेः । इमं विरक्तमन्यासु विधास्यामीति तद्वचः ॥ १५८ ॥ श्रुत्वा ताश्चित्तमेतस्यास्तरुणं स्मरविलम् । वपुरेव जराग्रस्तमित्यलं सहसाऽहसन् ॥ १५९ ।। 'मा हासः कुलसौरूप्यकलागुणयुजामिह । समप्रेमफलप्राप्तः किमन्यजन्मनः फलम् ॥ १६० ॥ वदतेति वदन्तीं तां पुनर्भो जन्मनः फलम् । तवेदमेव चेदस्मद्विभुना विधिना वयम् ॥ १६१ ॥ ४त्वामद्य योजयिष्यामः परिमुक्तविचारणम् । महादेवी भवेत्यासां हासवाणशरव्यताम् ॥ १६२॥ उपयान्तीमिमां वीक्ष्य कारुण्याजनकात्मजा । किमित्याकांक्षसि स्त्रीत्वं त्वं हितानवबोधिनी ॥ १६३ ॥ स्वीतामनुभवन्तीभिरत्रामूभिरनीप्सितम् । प्राप्तं प्राप्यं च दुर्बुद्धे महापापफलं शृणु ॥ १६४ ॥ अनिष्टलक्षणादन्यैरग्राह्यत्वाच्छुचा गृहे । स्वे वासो मृत्युपर्यन्तं कुलरक्षणकारणात् ॥ १६५॥ अपत्यजननाभावे प्रविष्टोत्पन्नगेहयोः । शोकोत्पादनबन्ध्यात्वं निर्भाग्यत्वादगौरवम् ॥ १६६ ॥ दुर्भगत्वेन कान्तानां परित्यागात्पराभवः । अस्पृश्यत्वं रजोदोषात् खण्डनात्कलहादिभिः ॥ १६७ ॥ दुःखदावाग्निसन्तापो वन्यानामिव भूरुहाम् । चक्रवर्तिसुतानां च परपादोपसेवना ॥ १६८ ॥
बोली कि बतला तो सही तू कौन है ? और कहाँसे आई है ? इसके उत्तरमें बुढ़िया कहने लगी कि मैं इस बगीचाकी रक्षा करनेवालेकी माता हूँ और यहीं पर रहती हूँ ।। १५४-१५५।। तदनन्तर उनके चित्तकी परीक्षा करनेके लिए वह फिर कहने लगी कि हे माननीयो ! आप लोगोंके सिवाय जो अन्य स्त्रियाँ हैं वे अपुण्यभागिनी हैं, आप लोग ही पुण्यशालिनी हैं क्योंकि इन जुमारोंके साथ
आप लोग भोग भोगने में सदा तत्पर रहती हैं। आप लोगोंने पूर्वभवमें कौन-सा पुण्य कर्म किया था, वह मुझसे कहिये। मैं भी उसे करूँगी, जिससे इस राजाकी रानी होकर इसे अन्य रानियोंसे विरक्त कर दूंगी। इस प्रकार उसके वचन सुन सब रानियाँ यह कहती हुई हँसने लगी कि इसका शरीर ही बुढ़ापासे ग्रस्त हुआ है चित्त तो जवान है और कामसे विह्वल है ।। १५६-१५६ ।। इसके उत्तरमें बुढ़िया बोली कि आप लोग कुल, उत्तम रूप तथा कला आदि गुणोंसे युक्त हैं अतः आपको हँसी करना उचित नहीं है। आप सबको एक समान प्रेम रूपी फलकी प्राप्ति हुई है इससे बढ़कर जन्मका दूसरा फल क्या हो सकता है ? आप लोग ही कहें। इस प्रकार कहती हुई बुढ़ियासे वे फिर कहने लगी कि यदि तेरे जन्मका यही फल है तो हम तुझे अपने-अपने पतिके साथ विधिपूर्वक मिला देंगी। तू बिना किसी विचारके इनकी पट्टरानी हो जाना। इस प्रकार उन स्त्रियोंकी हँसी रूपी वाणोंका निशाना बनती हुई बुढ़ियाको देख सीता दयासे कहने लगी कि तू स्त्रीपना क्यों चाहती है ? जान पड़ता है तू अपना हित भी नहीं समझती ॥ १६०-१६३ ॥ स्त्रीपनेका अनुभव करती हुई ये सब रानियाँ इसलोकमें अनिष्ट फल प्राप्त कर रही हैं। हे दुर्बुद्धे ! यह स्त्रीपर्याय महापापका फल है । सुनो, यदि कन्याके लक्षण अच्छे नहीं हुए तो उसे कोई भी पुरुष ग्रहण नहीं करता इसलिए शोकसे उसे अपने घर ही रहना पड़ता है। इसके सिवाय कन्याको मरण पर्यन्त बुलकी रक्षा करनी पड़ती है ॥ १६४-१६५ ॥ यदि किसीके पुत्र नहीं हुआ तो जिस घरमें प्रविष्ट हुई और जिस घरमें उत्पन्न हुई-उन दोनों ही घरोंमें शोक छाया रहता है। यदि भाग्यहीन होनेसे कोई वन्ध्या हुई तो उसका गौरव नहीं रहता ॥ १६६॥ यदि कोई स्त्री दुर्भगा अथवा कुरूपा हुई तो पति उसे छोड़ देता है जिससे सदा तिरस्कार उठाना पड़ता है। रजोदोषसे वह अस्पृश्य हो जाती है-उसे कोई छूता भी नहीं है। यदि कलह आदिके कारण पति उसे छोड़ देता है तो वनमें उत्पन्न हुए वृक्षोंके समान उसे दुःखरूपी दावानलमें सदा जलना पड़ता है। औरकी बात जाने दो चक्रवर्तीकी पुत्रीको भी
१ प्राकृतं ल० । २ महायुः म० । ३ समप्रेमहलिप्राप्तः ल० । ४ त्वमद्य ल० ।
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