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महापुराणे उत्तरपुराणम् प्रादुरासंस्तदोत्पाता लकायां किङ्करा इव । तद्ध्वंसिकालराजस्य समन्ताद्यदायिनः ॥ २२६ ॥ उत्पन्नमायुधागारे चक्रं वा कालचक्रवत् । यज्ञशालाप्रबद्धस्य वस्तकस्यैव शावलम् ॥ २२७ ॥ तदुत्पत्तिफलस्यास्या नवबोद्धः खगेशिनः । ज्वलदारं महाचक्रं महातोषमजीजनत् ॥ २२८॥ रामो नाम बलो भावी लक्ष्मणोऽप्यनुजातवान् । तस्य रूढप्रतापौ तौ द्वाप्यभिमुखोदयौ ॥ २२९ । सीता शीलवती नेयं जीवन्ती ते भविष्यति । अभिभूतिः सशीलानामत्रैव फलदायिनी ॥ २३०॥ उत्पाताश्च पुरेऽभूवन् बहवोऽशुभसूचकाः । लोकद्वयाहितं वाढमयशश्व युगावधि ॥ २३ ॥ मुच्यतां मंक्ष्वियं यावन्न' चेदं रुढिमृच्छति । इति युक्तिमती वाणीमुक्तो मन्त्र्यादिभिस्तदा ॥ २३२ ॥ प्रत्यभापत लङ्केशो यूयं युक्तिविरोधि किम् । अस्मृत्या वदतैवं च प्रत्यक्षे का विचारणा ॥ २३३ ॥ चक्ररत्नं समुत्पन्न सीतापहरणेन मे। पटखण्डार्धाधिपत्यं च तेन चिन्त्य करस्थितम् ॥ २३४ ।। स्वयं गृहागतां लक्ष्मी हन्यात्पादेन को विधीः । इति तद्भाषितं श्रुत्वा व्यरमन् हितवादिनः ॥ २३५ ।। इतः परिजनो रामं मायामणिमृगानुगम् । विपिने नष्टदिग्भागं सूर्येऽस्ताचलमेयुषि ॥ २३६ ॥ अदृष्टान्विष्य सीतां च वैमनस्यमगाराराम् । सय स्तनोवियोगोऽपि स्वामिनः केन सह्यते ॥ २३७ ॥ भानावुदयमायाति मर्त्यलोकैकचक्षुषि । ध्वान्ते भियेव निर्यात दलन्तीष्वब्जराशिषु ॥ २३८ ।। घटामटति कोकानां युग्मे युग्मद्विषा मुदा । अर्थः शब्देन वा योगं साधुना जानकीप्रियः ॥ २३९ ॥
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लगी ।। २२५ ।। उसी समय लङ्कामें उसे नष्ट करनेवाले यमराजके किंकरोंके समान भय उत्पन्न करनेवाले अनेक उत्पात सब ओर होने लगे ॥ २२६ ॥ जिस प्रकार यज्ञशालामें बँधे हुए बकराके समीप हरी घास उत्पन्न हो उसी प्रकार रावणकी आयुधशालामें कालचक्रके समान चक्ररत्न प्रकट हुआ। विद्याधरोंका राजा रावण उसके उत्पन्न होनेका फल नहीं जानता था-उसे यह नहीं मालूम था कि इससे हमारा ही घात होगा अतः जिसके अरोंका समूह देदीप्यमान हो रहा है ऐसे उस महाचक्रने उसे बहुत भारी सन्तोष उत्पन्न किया ॥ २२७-२२८ ॥
तदनन्तर मन्त्रियोंने उसे समझाया कि रामचन्द्र होनहार बलभद्र हैं, और उनका छोटा भाई लक्ष्मण नारायण होनेवाला है। इस समय उन दोनोंका प्रताप बढ़ रहा हैं और दोनों ही महान् अभ्युदयके सन्मुख हैं। सीता शीलवती स्त्री है, यह जीते जी तुम्हारी नहीं होगी। शीलवान् पुरुषका - तिरस्कार इसी लोकमें फल दे देता है। इसके सिवाय नगरमें अशुभकी सूचना देने उत्पात भी हो रहे हैं इसलिए दोनों लोकोंमें अहित करने एवं युगान्ततक अपयश बढ़ानेवाले इस कुकार्यको उसके पहले ही शीघ्र छोड़ दो जबतक कि यह बात सर्वत्र प्रसिद्धिको प्राप्त होती है। इस प्रकार मन्त्रियोंने युक्तिसे भरे वचन रावणसे कहे। रावण प्रत्युत्तरमें कहने लगा कि 'इस तरह आप लोग बिना कुछ सोचे-विचारे ही युक्ति-विरुद्ध वचन क्यों कहते हैं ? अरे, प्रत्यक्ष वस्तुमें विचार करनेकी क्या आवश्यकता है ? देखो, सीताका अपहरण करनेसे ही मेरे चक्ररत्न प्रकट हुआ है, इसलिए अब तीन खण्डका आधिपत्य मेरे हाथमें ही आगया यह सोचना चाहिये। ऐसा कौन मूर्ख होगा जो घरपर आई हुई लक्ष्मीको पैरसे ठुकरावेगा'। इस प्रकार रावणका उत्तर सुनकर हितका उपदेश देनेवाले सब मन्त्री चुप हो गये ।। २२६-२३५॥
इधर रामचन्द्रजी मणियोंसे बने मायामय मृगका पीछा करते-करते वनमें बहुत आगे चले गये वहाँ वे दिशाओंका विभाग भूल गये और सूर्य अस्ताचलपर चला गया। परिवारके लोगोंने उन्हें तथा सीताको बहुत हूँढा पर जब वे न दिखे तो बहुत ही खेद-खिन्न हुए। सो ठीक ही है क्योंकि शरीरका वियोग तो सहा जा सकता है परन्तु स्वामीका वियोग कौन सह सकता है ।।२३६२३७ ।। सबेरा होनेपर मनुष्य-लोकके चक्षुस्वरूप सूर्यका उदय हुआ, अन्धकार मानो भयसे भाग गया, कमलोंके समूह फूल उठे, रात्रिके कारण परस्पर द्वेष रखनेवाले चकवा-चकवियोंके युगल हर्षसे मिलने लगे और जिस प्रकार अर्थ निर्दोष शब्दके साथ संयोगको प्राप्त होता है अथवा
१-नात्रैवं ध० ।-नात्रेदं ख०,ग०, २ षटखण्डस्याधिपत्यं ल। ३ सद्यस्तनोर्वि ख०,सह्यः सूनोनि-ला।
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