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अष्टषष्टं पर्व
मामिहान्योऽहमप्यन्यमशक्तो हन्तुमित्यसौ । तूष्णींभावो भवेनेतुरासनं वृद्धिकारणम् ॥ ६९ ॥ स्ववृद्धौ शत्रुहानौ वा द्वयोर्वाभ्युद्यमं स्मृतम् । अरिं प्रति विभोर्यानं तावन्मात्रफलप्रदम् ॥ ७० ॥ अनन्यशरणस्याहुः संश्रयं सत्यसंश्रयम् । सन्धिविग्रहयोर्वृतिद्वैधीभावो द्विषां प्रति ॥ ७१ ॥ स्वाम्यमात्यौ' जनस्थानं कोशो दण्डः सगुप्तिकः । मित्रं च भूमिपालस्य सप्त प्रकृतयः स्मृताः ॥७२॥ इमे राज्यस्थितेः प्राज्ञैः पदार्था हेतवो मताः । तेषूपायवती शक्तिः प्रधानव्यवसायिनी ॥ ७३ ॥ पानीयं खननाद्वह्निर्मथनादुपलभ्यते । अदृश्यमपि सम्प्राप्यं सत्फलं व्यवसायतः ॥ ७४ ॥ फलप्रसवहीनं वा सहकारं विहङ्गमाः । विवेकवन्तो नामोपदिष्टं वा कुत्सितागमम् ॥ ७५ ॥ राजपुत्रमनुत्साहं त्यजन्ति विपुलाः श्रियः । स्वकीययोधसामन्तमहामात्यादयोऽपि च ॥ ७६ ॥ पुत्रं पिताप्यनुद्योगं मत्वायोग्यं विषीदति । इति विज्ञापनं श्रुत्वा तयोर्नरपतिस्तदा ॥ ७७ ॥ युवाभ्यामुक्तमेवेदं प्रत्यपादि कुलोचितम् । इत्याविष्कृतहर्षाप्तिर्भाविसीरभृतः स्वयम् ॥ ७८ ॥ 3 विन्यस्य राज्ययोग्योरुमुकुटं लक्ष्मणस्य च । प्रबध्य यौवराज्याधिपत्यपहं महौजसः ॥ ७९ ॥ महाभ्युदयसम्पादिसत्याशीभिः प्रवर्द्धयन् । पुत्रौ प्रस्थापयामास पुरीं वाराणसीं प्रति ॥ ८० ॥ गत्वा प्रविश्य तामुच्चैः पौरान् जानपदानपि । दानमानादिभिः सम्यक् सदा तोषयतोस्तयोः ॥ ८१ ॥ दुष्टनिग्रहशिष्टानुपालन प्रविधानयोः । अविलङ्घयतोः पूर्वमर्यादां नीतिवेदिनोः ॥ ८२ ॥ प्रजापालन कार्यैकनिष्ठयोर्निष्ठितार्थयोः । काले गच्छति कल्याणैः कल्पैः निःशल्य सौख्यदैः ॥ ८३ ॥
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॥ ६६-६८ ॥ इस समय मुझे कोई दूसरा और मैं किसी दूसरेको नष्ट करनेके लिए समय नहीं हूं ऐसा विचार कर जो राजा चुप बैठ रहता है उसे आसन कहते हैं। यह आसन नामका गुण राजाओंकी वृद्धिका कारण है ॥ ६६ ॥ अपनी वृद्धि और शत्रुकी हानि होने पर दोनोंका शत्रुके प्रति जो उद्यम है - शत्रु पर चढ़कर जाना है उसे यान कहते हैं। यह यान अपनी वृद्धि और शत्रुकी हानि रूप फलको देनेवाला है ।। ७० ।। जिसका कोई शरण नहीं है उसे अपनी शरण में रखना संश्रय नामका गुण है और शत्रुओं में सन्धि तथा विग्रह करा देना द्वैधीभाव नामका गुण है ।। ७९ ।। स्वामी, मन्त्री, देश, खजाना, दण्ड, गढ़ और मित्र ये राजाकी सात प्रकृतियाँ कहलाती हैं ।। ७२ ।। विद्वान लोगोंने ऊपर कहे हुए ये सब पदार्थ, राज्य स्थिर रहनेके कारण माने हैं । यद्यपि ये सब कारण हैं तो भी साम आदि उपायोंके साथ शक्तिका प्रयोग करना प्रधान कारण है ।। ७३ ।। जिस प्रकार खोदनेसे पानी और परस्परकी रगड़से अनि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उद्योगसे, जो उत्तम फल अदृश्य है - दिखाई नहीं देता वह भी प्राप्त करनेके योग्य हो जाता है ।। ७४ ।। जिस प्रकार फल और फूलोंसे रहित आमके वृक्षको पक्षी छोड़ देते हैं और विवेकी मनुष्य उपदिष्ट मिध्या आगमको छोड़ देते हैं उसी प्रकार उत्साहहीन राजपुत्रको विशाल लक्ष्मी छोड़ देती है। यही नहीं, अपने योद्धा सामन्त और महामन्त्री आदि भी उसे छोड़ देते हैं ।। ७५-७६ ।। इसी तरह पिता भी उद्यम रहित पुत्रको अयोग्य समझकर दुखी होता है । राम और लक्ष्मणकी ऐसी प्रार्थना सुनकर महाराज दशरथ उस समय बहुत ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि तुम दोनोंने जो कहा है वह अपने कुलके योग्य ही कहा है। इस प्रकार हर्ष प्रकट करते हुए उन्होंने भावी बलभद्र - रामचन्द्रके शिर पर स्वयं अपने हाथोंसे राज्यके योग्य विशाल मुकुट बाँधा और महाप्रतापी लक्ष्मणके लिए यौवराजका आधिपत्य पट्ट प्रदान किया । तदनन्तर महान् वैभव सम्पादन करनेवाले सत्य आशीर्वादके द्वारा बढ़ाते हुए राजा दशरथने उन दोनों पुत्रोंको बनारस नगरके प्रति भेज दिया ।। ७७-८० ॥ दोनों भाइयोंने जाकर उस उत्कृष्ट नगरमें प्रवेश किया और वहाँ के रहनेवाले नगरवासियों तथा देशवासियों को दोनों भाई सदा दान मान आदिके द्वारा सन्तुष्ट करने लगे । वे सदा दुष्टोंका निग्रह और सज्जनोंका पालन करते थे, नीतिके जानकार थे तथा पूर्व मर्यादाका कभी उल्लंघन नहीं करते थे । उनका प्रजा पालन करना ही मुख्य कार्य था । वे कृतकृत्य हो चुके थे-सब कार्य कर चुके थे अथवा किसी भी कार्यको प्रारम्भ कर उसे पूरा कर ही छोड़ते थे । इस प्रकार शल्यरहित उत्तम सुख प्रदान करने१ स्वाम्यमात्यो ल०, द० । २ मित्रं भूमिपालस्य ल० । ३ विनस्य ल• ।
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