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महापुराणे उत्तरपुराणम् निषिद्धावपि तौ तेन पुनश्चैवमवोचताम् । आवयोरेव देवस्य स्नेही याननिषेधनम् ॥ ५६ ॥ शौर्यस्य सम्भवो यावधावत्पुण्यस्य च स्थितिः । तावदुत्साहसबाहं न मुञ्चन्स्युदयार्थिनः ॥ ५७ ।। बुद्धिं शक्तिमुपायं च जयं गुणविकल्पनम् । सम्यक्प्रकृतिभेदांश्च विदित्वा राजसूनुना ॥ ५८ ॥ महोद्योगो विधातव्यो विरुद्धान्विजिगीषुणा । स्वभावविनयोता द्विधा बुद्धिनिंगद्यते ॥ ५९ ॥ मन्त्रोत्साहप्रभूक्ता च त्रिधा शक्तिरुदाहृता। 'पञ्चाङ्गमन्त्रनिर्णीतिमंन्त्रशक्तिमंतागमे ॥१०॥ शौर्योर्जितत्वादुत्साहशक्तिः शक्तिज्ञसम्मता । प्रभुशक्तिर्महीभ राधिक्य कोशदण्डयोः ॥ ६॥ २सामायोपप्रदां भेदं दण्डं च नयकोविदाः । वदन्त्युपायांश्चतुरो यैरर्थः साध्यते नृपैः ।। ६२ ॥ प्रियं हितं वचः कायपरिष्वङ्गादि साम तत् । हस्त्यश्वदेशरत्नादि दत्ते सोपप्रदा मता ॥ ६३॥ कृत्यानामुपजापेन स्वीकृति भेदमादिशेत् । शष्पमुष्टिवर्ध दाहलोपविध्वंसनादिकम् ॥ ६ ॥ शत्रुक्षयकरं कर्म पण्डितैर्दण्डमिष्यते । इन्द्रियाणां निजार्थेषु प्रवृत्तिरविरोधिनी ॥६५॥ कामादिशत्रुवित्रासो ४वा जयो जयशालिनः । सन्धिः सविग्रहो नेतुरासन यानसंश्रयौ ॥ १६॥ द्वैधीभावश्च षट् प्रोक्ता गुणाः प्रणयिनः श्रियः । कृतविग्रहयोः पश्चात्केनचिद्धतुना तयोः ॥ ६७ ॥ मैत्रीभावः स सन्धिः स्यात्सावधिविंगतावधिः। परस्परापकारोऽरिविजिगीष्वोः स विग्रहः ॥६८॥
व्याप्त हो रहा है इसलिए वहाँ जानेकी क्या आवश्यकता है ? मत जाओ ? यद्यपि महाराज दशरथने उन्हें बनारस जानेसे रोक दिया था तो भी वे पुनः इस प्रकार कहने लगे कि महाराजका हम दोनों पर जो महान् प्रेम है वही हम दोनोंके जानेमें बाधा कर रहा है ॥ ५१-५६ ॥ जब तक शूरवीरताका होना सम्भव है और जब तक पुण्यकी स्थिति बाकी रहती है तब तक अभ्युदयके इच्छुक पुरुष उत्साहकी तत्परताको नहीं छोड़ते हैं ।। ५७ ।। जो राजपुत्र विरुद्ध-शत्रुओंको जीतना चाहते हैं उन्हें बुद्धि, शक्ति, उपाय, विजय, गुणोंका विकल्प और प्रजा अथवा मन्त्री आदि प्रकृतिके भेदोंको अच्छी तरह जानकर महान् उद्योग करना चाहिये। उनमेंसे बुद्धि दो प्रकारकी कही जाती है एक स्वभावसे उत्पन्न हुई और दूसरी विनयसे उत्पन्न हुई। ५८-५६ ।। शक्ति तीन प्रकारकी कही गई है एक मन्त्रशक्ति, दूसरी उत्साह-शक्ति और तीसरी प्रभुत्व-शक्ति । सहायक, साधनके उपाय, देशविभाग, काल-विभाग और बाधक कारणोंका प्रतिकार इन पाँच अङ्गोंके द्वारा मन्त्रका निर्णय करना
आगममें मन्त्रशक्ति बतलाई गई है ।। ६० ॥ शक्तिके जाननेवाले शूर-वीरतासे उत्पन्न हुए उत्साहको उत्साह-शक्ति मानते हैं। राजाके पास कोश (खजाना) और दण्ड (सेना) की जो अधिकता होती है उसे प्रभुत्व-शक्ति कहते हैं ॥ ६१ ॥ नीतिशास्त्र के विद्वान् साम, दान, भेद और दण्ड इन्हें चार उपाय कहते हैं। इनके द्वारा राजा लोग अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं ।। ६२॥ प्रिय तथा हितकारी वचन बोलना और शरीरसे आलिङ्गन आदि करना साम कहलाता है। हाथी. घोड़ा. देश तथा रत्न आदिका देना उपप्रदा-दान कहलाता है। उपजाप अर्थात् परस्पर फूट डालनेके द्वारा अपना कार्य स्वीकृत करना-सिद्ध करना भेद कहलाता है। शत्रुके घास आदि आवश्यक सामग्री की चोरी करा लेना, उनका वध करा देना, आग लगा देना, किसी वस्तुको छिपा देना अथवा सर्वथा नष्ट कर देना इत्यादि शत्रुओंका क्षय करनेवाले जितने कार्य हैं उन्हें पण्डित लोग दण्ड कहते हैं। इन्द्रियोंकी अपने-अपने योग्य विषयोंमें विरोध रहित प्रवृत्ति होना तथा कामादि शत्रओंको भयभीत करना जयशाली मनुष्यकी जय कहलाती है ॥ ६३-६५ ।। सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वैधीभाव ये राजाके छह गुण कहे गये हैं । ये छहों गुण लक्ष्मीके स्नेही हैं। युद्ध करनेवाले दो राजाओंका पीछे किसी कारणसे जो मैत्रीभाव हो जाता है उसे सन्धि कहते हैं। यह सन्धि दो प्रकारकी है अवधि सहित-कुछ समयके लिए और अवधि रहित-सदाके लिए। शत्र तथा उसे जीतनेवाला दुसरा राजा ये दोनों परस्परमें जो एक दूसरेका अपकार करते हैं उसे विग्रह कहते हैं
१ 'सहायः साधनोपायौ विभागो देशकालयोः। विनिपातप्रतीकारः सिद्धः पश्चाङ्गमिष्यते। २ साम. श्रायस्य उपप्रदा दानमिति यावत् , मेदं, दण्डञ्च, चतुर उपायान् वदन्ति । ३ दण्डितैः ल०। ४ विजयो क.५०।
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