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महापुराणे उत्तरपुराणम् वसुधा वसुधागेहे गुणयन्ती कलागुणान् । अवर्द्धयदिमां गूढां लकेशोऽपि न वेश्यमूम् ॥२८॥ बार्ता जनकयागस्य तस्मामात्रागमिष्यति । दास्यत्यवश्य रामाय तां कन्या मिथिलेश्वरः ॥ २९॥ तत्कुमारी प्रहेतव्याविति नैमित्तिकोक्तितः । राज्ञाखिलबलेनामा प्रहितौ रामलक्ष्मणौ ॥ ३०॥ प्रत्युद्यातौ महीशेन जनकेनानुरागिणा । प्राग्जन्मसञ्चितामेयस्वपुण्यपरिपाकतः ॥ ३१ ॥ रूपादिगुणसम्पत्त्या सत्यमेतौ गतोपमौ । इति पौरैः प्रशंसद्भिः प्रेक्ष्यमाणौ समं ततः ॥ ३२॥ पुरं प्रविश्य भूपोक्त स्थाने न्यबसतां सुखम् । दिनैः कतिपयैरेव नृपमण्डलसन्निधौ ॥३३॥ निर्वाभिमतं यज्ञविधानं तदनन्तरम् । महाविभूतिभिः सीतां ददौ रामाय भूपतिः ॥ ३४ ॥ दिनानि कानिचित्तत्र सीतयेव श्रिया समम् । नवप्रेमसमुद्भूतं सुखं रामोऽन्वभूद् भृशम् ॥ ३५॥ तदा दशरथाभ्यर्णादायातसचिवोक्तिभिः । जनकानुमतः शुद्धतिथौ परिजनान्वितः ॥ ३६ ॥ अभ्ययोध्यां पुरी सीतासमेतो जातसम्मदः। लक्ष्मणेन च गत्वाशु स्वानुजाभ्यां स्वबन्धुभिः ॥ ३७ ॥ परिवारैश्च स प्रत्यग्गम्यमानो निजां पुरीम् । विभूत्या दिविजेन्द्रो वा विनीतां प्राविशजयी ॥ ३८॥ दृष्टा यथोचितं प्रीत्या पितरौ प्रीतचेतसौ। तस्थौ प्रवर्द्धमानश्रीः सप्रियः सानुजः सुखम् ॥ ३९ ॥ तदा तदुत्सवं भूयो वर्द्धयन्नात्मना मधुः । कोकिलालिकु'लालापडिण्डिमो मण्डयन् दिशः ॥ ४० ॥ सन्धि तपोधनैः सार्द्ध विग्रहं शिथिलवतैः । प्रकुर्वाणस्य कामस्य सामवायिकतां वहन् ॥ ४॥
लिए दे दी ॥ २६-२७ ॥ रानी वसुधाने भूमिगृहके भीतर रहकर उस पुत्रीका पालन-पोषण किया है तथा उसके कलारूप गुणोंकी वृद्धि की है। यह कन्या इतनी गुप्त रखी गई है कि लङ्केश्वर रावणको इसका पता भी नहीं है। इसके सिवाय राजा जनक यज्ञ कर रहे हैं यह खबर भी रावणको नहीं है अतः वह इस उत्सवमें नहीं आवेगा। ऐसी स्थितिमें राजा जनक वह कन्या रामके लिए अवश्य देवेंगे । इसलिए राम और लक्ष्मण ये दोनों ही कुमार वहाँ अवश्य ही भेजे जानेके योग्य हैं। इस प्रकार निमित्तज्ञानी पुरोहितके कहनेसे राजा समस्त सेनाके साथ राम और लक्ष्मणको भेज दिया ॥२८-३०॥ अनुरागसे भरे हुए राजा जनकने उन दोनोंकी अगवानी की। 'पूर्व जन्ममें संचित अपने अपरिमिति पुण्यके उदयसे जो इन्हें रूप आदि गुणोंकी सम्पदा प्राप्त हुई है उससे ये सचमुच ही अनुपम हैं-उपमा रहित हैं। इस प्रकार प्रशंसा करते हुए नगरके लोग जिन्हें देख रहे हैं ऐसे दोनों भाई साथ ही साथ नगरमें प्रवेश कर राजा जनकके द्वारा बतलाये हुए स्थान पर सुखके ठहर गये । कुछ दिनोंके बाद जब अनेक राजाओंका समूह आ गया तब उनके सन्निधानमें राजा जनकने अपने इष्ट यज्ञकी विधि पूरी की और बड़े वैभवके साथ रामचन्द्रके लिए सीता प्रदान की ॥३१-३४|| रामचन्द्रजीने कुछ दिन तक लक्ष्मीके समान सीताके साथ वहीं जनकपुरमें नये प्रेमसे उत्पन्न हुए सातिशय सुखका उपभोग किया ।। ३५ ।। तदनन्तर राजा दशरथके पाससे आये हुए मन्त्रियोंके कहनेसे रामचन्द्रजीने राजा जनककी आज्ञा ले शुद्ध तिथिमें परिवारके लोग, सीता तथा लक्ष्मणके साथ बड़े हर्षसे अयोध्याकी ओर प्रस्थान किया और शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये। वहाँ पहुँचने पर दोनों छोटे भाई भरत और शत्रुघ्नने, बन्धुओं तथा परिवारके लोगोंने उनकी अगवानी की। जिस प्रकार इन्द्र बड़े वैभवके साथ अपनी नगरी अमरावती में प्रवेश करता है उसी प्रकार विजयी रामचन्द्रजीने बड़े वैभवके साथ अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया ।। ३६-३८॥ वहाँ उन्होंने प्रसन्न चित्तके धारक माता-पिताके दर्शन यथायोग्य प्रेमसे किये। तदनन्तर जिनकी लक्ष्मी उत्तरोत्तर बढ़ रही है ऐसे रामचन्द्रजी सीता तथा छोटे भाइयोंके साथ सुखसे रहने लगे ॥३६॥
उसी समय अपने द्वारा उनके उत्सवको बढ़ाता हुआ वसन्त ऋतु आ पहुँचा। कोयलों और भ्रमरोंके समूह जो मनोहर शब्द कर रहे थे वही मानो उसके नगाड़े थे, वह समस्त दिशाओंको सुशोभित कर रहा था। जो कामदेव, तपोधन-साधुओंके साथ सन्धि करता है और शिथिल व्रतों
१ च सुधागेहे ल० । २ गूढं म०, ल०। ३ प्रेक्षमाणौ ल० (१)। ४ अभ्ययोध्या पुरं ग.। ५ कोकिलालिकलालाप-म० ।
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