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महापुराणे उत्तरपुराणम् आनाय्य तेन निर्माप्य पृथुपादचतुष्टयम् । तसिहासनमारुह्य सेव्यमानो नृपादिभिः ॥२८॥ वसुः सत्यस्य माहात्म्यात्स्थितः खे सिंहविष्टरे। इति विस्मयमानेन जनेनाघोषितोचतिः ॥२८॥ तस्थावेवं प्रयात्यस्य काले पर्वतनारदौ। समित्पुष्पार्थमभ्येत्य वनं नद्याः प्रवाहजम् ॥२८२॥ जलं पीत्वा मयराणां गतानां मार्गदर्शनात् । बभाषे नारदस्तत्र हे पर्वत शिखावलः ॥२८॥ तेष्वेकोऽस्ति स्त्रियः सप्सैवेति तच्छ्रवणादसौ। मृत्यसोढा चिचेव व्यधात् पणितबन्धनम् ॥२८॥ 'गत्वा ततोऽन्तरं किञ्चित् सद्भूतं नारदोदितम्। विदित्वा विस्मयं सोऽगान्मनागस्मात्पुरोगतः ॥२८५॥
करेणुमार्गमालोक्य सस्मितं नारदोऽवदत् । अन्धवामेक्षणा हस्तिवशैकात्राधुना गता ॥२८॥ अन्धसर्पविलायानमिव ते पूर्वभाषितम् । आसीद्यादृच्छिकं सत्यमिदं तु परिहास्यताम् ॥२८७॥ प्रयाति तव विज्ञानं मया विदितमस्ति किम् । इति स्मितं स सासूर्य चित्ते विस्मयमाप्तवान् ॥२८॥ तमसत्यं पुनः कर्तुं करिणीगमनानुगः। 'पुराऽन्तर्नारदोद्दिष्टमुपलभ्य तथैव तत् ॥२८९॥ सशोको गृहमागत्य नारदोक्तं सविस्मयः । मातरं बोधयित्वाह नारदस्येव मे पिता ॥२९०॥ नावोचच्छास्त्रयाथात्म्यमस्ति मय्यस्य नादरः। इति पुत्रवचस्तस्या हृदयं निशितास्त्रवत् ॥२९॥ विदार्य प्राविशत्यायाद्विपरीतावमर्शनात् । ब्राह्मणी तद्वचचिरोनावधार्य शुचं गता ॥२९२॥ कृत्वा स्नानाग्निहोत्रादि भुक्त्वा स्वब्राह्मणे स्थिते । अब्रवीत् पर्वतप्रोक्तं तनिशम्य विदां वरः ॥२९॥ निविशेषोपदेशोऽहं सर्वेषां पुरुषं प्रति । विभिन्ना बुद्धयस्तस्मानारदः कुशलोऽभवत् ॥२९॥
आजतक उसका बोध नहीं हुआ था ।। २७८-२७६ ॥ राजा वसुने उस स्तम्भको घर लाकर उसके चार बड़े बड़े पाय बनवाये और उनका सिंहासन बनवाकर वह उसपर आरूढ़ हुआ। उस समय अनेक राजा आदि उसकी सेवा करते थे। लोग बड़े आश्चर्यसे उसकी उन्नतिकी घोषणा करते हुए कहते थे कि देखो, राजा वसु सत्यके माहात्म्यसे सिंहासनपर अधर आकाशमें बैठता है ॥२८०-२८शा इस प्रकार इधर राजा वसुका समय बीत रहा था उधर एक दिन पर्वत और नारद, समिधा तथा पुष्प लानेके लिए वनमें गये थे। वहाँ वे क्या देखते हैं कि कुछ मयूर नदीके प्रवाहका पानी पीकर गये हुए हैं। उनका मार्ग देखकर नारदने पर्वतसे कहा कि हे पर्वत ! ये जो मयूर गये हुए हैं उनमें एक तो पुरुष है और बाकी सात स्त्रियाँ हैं। नारदकी बात सुनकर पर्वतने कहा कि तुम्हारा कहना झूठ है, उसे मनमें यह बात सह्य नहीं हुई अतः उसने कोई शर्त बाँध ली ।। २८२-२८४ ॥ तदनन्तर कुछ
आगे जाकर जब उसे इस बातका पता चला कि नारदका कहा सच है तो वह आश्चर्यको प्राप्त हुआ। वे दोनों वहाँसे कुछ और आगे बढ़े तो नारद हाथियोंका मार्ग देखकर मुसकराता हुआ बाला कि यहाँसे जो अभी हस्तिनी गई है उसका बाँया नेत्र अन्धा है ॥ २८५-२८६॥ पर्वतने कहा कि तुम्हारा पहला कहना अन्धे साँपका बिलमें पहुंच जानेके समान यों ही सच निकल आया यह ठीक है परन्तु तुम्हारा यह विज्ञान हँसीको प्राप्त होता है । मैं क्या समदूं ? इस तरह हँसते हुए ईर्ष्याके साथ उसने कहा और चित्तमें आश्चर्य प्राप्त किया ॥ २८७-२८८॥ तदनन्तर नारदको झूठा सिद्ध करनेके लिए वह हस्तिनीके मार्गका अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ा और नगरतक पहुँचनेके पहले ही उसे इस बातका पता चल गया कि नारदने जो कहा था वह सच है।। २८६॥ अब तो पर्वतके शोकका पार नहीं रहा । वह शोक करता हुआ बड़े आश्चर्यसे घर आया और नारदकी कही हुई सब बात मातासे कहकर कहने लगा कि पिताजी जिस प्रकार नारदको शास्त्रकी यथाथे बात बतलाते हैं उस प्रकार मुझे नहीं बतलाते हैं। ये सदा मेरा अनादर करते हैं। इसतरह पापोदयसे विपरीत विचार करनेके कारण पुत्रके वचन, तीक्ष्णशस्त्र के समान उसके हृदयको चीरकर भीतर घुस गये। ब्राह्मणी पुत्रके वचनोंका विचारकर हृदयसे शोक करने लगी ।। २६०-२६२ ।। जब ब्राह्मण क्षीरकदम्ब स्नान; अग्निहोत्र तथा भोजन करके बैठा तब ब्राह्मणीने पर्वतके द्वारा कही हुई सब बात कह सुनाई। उसे
१ इति सर्वत्र पुस्तकेषु पाठः। ल० पुस्तके तु भ्रष्टो विपर्यस्तो वा । २ पुरा तन्नारदोद्दिष्ट ख०, ग० । पुरोऽन्तर्नारदोद्दिष्ट म०। पुरोन्तरदादिष्ट ल०।
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