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सप्तषष्टितम पर्व
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विषयाधिपतिर्भवा महामेधे कृतोद्यमः । विमानान्तर्गता देवा पितरश्च नभोऽङ्गणे ॥३८३॥ सर्वेषां दर्शिता व्यक्तं महाकालस्य मायया। महामेधस्त्वया यागो मन्त्रिन् पुण्यवता कृतः ॥३८४॥ इति विश्वभुवं भूपः सम्भूयास्ताविपुस्तदा । नारदस्तापसाश्चैतदाकण्यष दुरात्मना ॥३८५॥ 'दुर्मार्गो द्विषतानेन धिक लोकस्य प्रकाशितः । निवार्योयमुपायेन केनचित्यापपण्डितः ॥३८६॥ इति सर्वेपि सङ्गत्य साकेतपुरमागताः । यथाविधि समालोक्य सचिवं पापिनो नराः ॥३८७॥ नितान्तमर्थकामार्थ कुर्वन्ति प्राणिनां वधम् । न केऽपि कापि धर्मार्थ प्राणिनां सन्ति घातकाः ॥३८८॥ वेदविद्भिरहिंसोक्ता वेदे ब्रह्मनिरूपिते । कल्पवल्लीव मातेव सखीव जगते हिता ॥३८९॥ इति पूर्वषिवाक्यस्य त्वया प्रामाण्यमिच्छता । त्याज्यमेतद्वधप्रायं कर्म कर्मनिबन्धनम् ॥३९॥ तापसैरभ्यधायीति सर्वप्राणिहितैषिभिः। विश्वभूरिदमाकर्ण्य तापसा भोः कथं मया ॥३९॥ दृष्टं शक्यमपहोतं साक्षात्स्वर्गस्य साधनम् । इति ब्रवन् पुनर्नारदेनोक्तः पापभीरुणा ॥३१२॥ अमात्योराम विद्वांस्त्वं किमिति स्वर्गसाधनम् । सगरं सपरीवारं निर्मूलयितुमिच्छता ॥३९३॥ उपायोऽयं व्यधाय्येवं प्रत्यक्षफलदर्शनात् । केनचित्कुहुकज्ञेन मुग्धानां मोहकारणम् ॥३९४॥ ततः शीलोपवासादिविधिमार्षागमोदितम् । आचरेति स तं प्राह पर्वतं नारदोदितम् ॥३९५॥ श्रतं त्वयेत्यसौ शास्त्रेणासुरोक्तेन दुर्मतिः। मोहितो नारदेनापि प्रागिदं किं न वा श्रुतम् ॥३९६॥
समास्य च गुरुर्नान्यो "मत्पितैवातिगविंतः । समत्सरतयाप्येष मय्यद्य किमिवोच्यते ॥३९७॥ प्रसादसे ही सुखको प्राप्त हुआ हूं। यह देख, विश्वभू मन्त्री जो कि सगर राजाके पीछे स्वयं उसके देशका स्वामी बन गया था महामेध यज्ञमें उद्यम करने लगा। महाकालकी मायासे सब लोगोंको साफ साफ दिखाया गया था कि आकाशाङ्गणमें बहुतसे देव तथा पितर लोग अपने अपने विमानोंमें बैठे हुए हैं। राजा सगर तथा अन्य लोग एकत्रित होकर विश्वभू मन्त्रीकी स्तुति कर रहे हैं कि मन्त्रिन् ! तुम बड़े पुण्यशाली हो, तुमने यह महामेध यज्ञ प्रारम्भ कर बहुत अच्छा कार्य किया। इधर यह सब हो रहा था उधर नारद तथा तपस्वियोंने जब यह समाचार सुना तो वे कहने लगे कि इस दुष्ट शत्रुने लोगोंके लिए यह मिथ्या मार्गबतलाया है अतः इसे धिक्कार है। पाप करनेमें अत्यन्त चतर इस पर्वतका किसी उपायसे प्रतिकार करना चाहिये। ऐसा विचार कर सब लोग एकत्रित हो अयोध्या नगरमें आये । वहाँ उन्होंने पाप करते हुए विश्वभू मन्त्रीको देखा और देखा कि बहुतसे पापी मनुष्य अर्थ और कामके लिए बहुतसे प्राणियोंका वध कर रहे हैं। तपस्वियोंने विश्वभ मंत्रीसे कहा कि पापी मनुष्य अर्थ और कामके लिए तो प्राणियोंका विघात करते हैं परन्तु धर्मके लिए कहीं भी कोई भी मनुष्य प्राणियोंका घात नहीं करते। वेदके जानने वालोंने ब्रह्मनिरूपित वेदमें अहिंसाको कल्प लताके समान, अथवा सखीके समान जगत्का हित करनेवाली बतलाया है। हे मंनिन । यदि तम पूर्व ऋषियोंके इस वाक्यको प्रमाण मानते हो तो तुम्हें हिंसासे भरा हा यह कार्य जो कि कर्मबन्धका कारण है अवश्य ही छोड़ देना चाहिए ।। ३७१-३६०॥ सब प्राणियोंका हित चाहने वाले तपस्वियोंने इसप्रकार कहा परन्तु विश्वभू मन्त्रीने इसे-सुन कर कहा कि हे तपस्वियो! जो यज्ञ प्रत्यक्षही स्वर्गका साधन दिखाई दे रहा है उसका अपलाप किस प्रकार किया जा सकता है ? तदनन्तर इस प्रकार कहने वाले विश्वभू मंत्रीरो पापभीरु नारदने कहा कि हे उत्तम मंत्रिन् ! तू तो विद्वान है, क्या यह सब स्वर्गका साधन है ? अरे, राजा सगरको परिवार सहित निर्मूल नष्ट करनेकी इच्छा करने वाले किसी मायावीने इस तरह प्रत्यक्ष फल दिखाकर यह उपायरचाहै, ग्रह उपाय केवल मूर्खमनुष्योंको ही मोहित करनेका कारण है ॥३६१-३६४॥इसलिएतू ऋषि प्रणीत आगममें कही हुई शील तथा उपवास आदि
विधिका आचरण कर। इस प्रकार नारदके वचन सुनकर विश्वभूने पर्वतसे कहा कि तुमने नारदका कहा सुना ? महाकाल असुरके द्वारा कहे शाखसे मोहित हुआ दुर्बुद्धि पर्वत कहने लगा कि
१दर्मार्गोऽधिकृतोऽनेन म. ल.। २ कोऽपि ल.। ३ वेदे ब्रह्मनिरूपितः म.। वेदो ब्रह्मनिरूपितः ल.४ पूर्वार्षवाक्यस्य ल०। ५ मतित्य वाति ल०१)
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