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सप्तषष्टितम पर्व
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अथाभिव्यज्यते तस्य वाच्यं प्राकप्रतिबन्धकम् । प्रदीपज्वलनात्पूर्व घटादेरन्धकारवत् ॥४॥ भस्तु वा नाहतव्यक्तिसृष्टिवादो विधीयते । इति श्रुत्वा वचस्तस्य सर्वे ते तं समस्तुवन् ॥१२॥ वसुना चेद् द्वयोर्वादे विच्छेदः सोऽभिगम्यताम् । इति ताभ्यां समं संसदगच्छत्स्वस्तिकावतीम्॥१३॥ तत्सर्व पर्वतेनोक्त ज्ञात्वा तजननी तदा। सह तेन वसुं दृष्ट्वा पर्वतस्त्वपरिग्रहः ॥१४॥ तपोवनोन्मुखेनायं गुरुणापि तवापितः । नारदेन सहास्येह तवाध्यक्षे भविष्यति ॥१५॥ विवादो यदि भङ्गोऽत्र भावी भावियमाननम् । विद्ध्यस्य शरणं नान्यदित्याख्यत्सोऽपि सादरम् ४१६ विधित्सुर्गुरुशुश्रुषामम्ब मास्मात्र शङ्कथाः। जयमस्य विधास्यामीत्यस्या भयमपाकरोत् ॥४१७॥ अन्येधुर्वसुमाकाशस्फटिकांहूयुद्धतासनम् । सिंहाङ्कितं समारुह्य स्थितं समुपगम्यते ॥४१॥ सम्पृच्छन्ति स्म सर्वेऽपि विश्वभूसचिवादयः । त्वतः प्रागप्यहिंसादिधर्मरक्षणतत्पराः ॥ ४१९ ॥ चत्वारोऽत्र महीपाला भूता हिममहासम । वस्वादिगिरिपर्यन्तनामानो हरिवंशजाः ॥ ४२० ॥ पुरा चैपु व्यतीतेषु विश्वावसुमहामहीट् । अभूत्ततो भवांश्चासीदहिंसाधर्मरक्षकः ॥ ४२१ ॥ त्वमेव सत्यवादीति प्रघोषो भुवनत्रये । विषवह्नितुलादेश्यो वस्तुसन्देहसन्निधौ ॥ ४२२॥ त्वमेव प्रत्ययोत्पादी छिन्दि नः संशयं विभो। अहिंसालक्षणं धर्म नारदः प्रत्यपद्यत ॥ ४२३ ॥ पर्वतस्तद्विपर्यासमुपाध्यायोपदेशनम् । यादृक् ताहक त्वया 'वाच्यमित्यसौ चाथितः पुरा ॥ ४२४ ॥
क्यों नही बना देता ? ॥ ४१०॥ यदि यह कहो कि ब्रह्मा पशु आदिको नवीन नहीं बनाता है किन्तु प्रकट करता है ? तो फिर यह कहना चाहिए कि प्रकट होनेके पहले उनका प्रतिबन्धक क्या था ? उन्हें प्रकट होनेसे रोकनेवाला कौन था ? जिस प्रकार दीपक जलनेके पहले अन्धकार घटादिको रोकनेवाला है उसी प्रकार प्रकट होनेके पहले पशु आदिको रोकनेवाला भी कोई होना चाहिए ।। ४११ । इस प्रकार आपके सृष्टिवादमें यह व्यक्तिवाद आदर करनेके योग्य नहीं है। इस तरह नारदके वचन सुनकर सब लोग उसकी प्रशंसा करने लगे ॥ ४१२॥ सब कहने लगे कि यदि राजा वसुके द्वारा तुम दोनोंका विवाद विश्रान्त होता है तो उनके पास चला जावे । ऐसा कह सभाके सब लोग नारद
और पर्वतके साथ स्वस्तिकावती नगर गये ॥ ४१३ ॥ पर्वतके द्वारा कही हुई यह सब जब उसकी माताने जानी तब वह पर्वतको साथ लेकर राजा वसुके पास गई और राजा वसुके दर्शन कर कहने लगी कि यह निर्धन पर्वत तपोवनके लिए जाते समय तुम्हारे गुरुने तुम्हारे लिए सौंपा था। आज तुम्हारी अध्यक्षतामें यहाँ नारदके साथ विवाद होगा। यदि कदाचित् उस वादमें इसकी पराजय हो गई तो फिर यमराजका मुख ही इसका शरण होगा अन्य कुछ नहीं, यह तुम निश्चित समझ लो, इस प्रकार पर्वतकी माताने राजा वसुसे कहा। राजा वसु गुरुकी सेवा करना चाहता था अतः बड़े
आदरसे बोला कि हे माँ ! इस विषयमें तुम कुछ भी शंका न करो। मैं पर्वतकी ही विजय कराऊँगा। इस तरह कहकर उसने पर्वतकी माका भय दूर कर दिया। ॥४१४-४१७ ॥ दूसरे दिन राजा वसु आकाश-स्फटिकके पायोंसे खड़े हुए, सिंहासनपर आरूढ़ होकर राज-सभामें विराजमान था उसी समय वे सब विश्वभू मन्त्री आदि राजसभामें पहुँच कर पूछने लगे कि आपसे पहले भी अहिंसा आदि धर्मकी रक्षा करनेमें तत्पर रहने वाले हिमगिरि, महागिरि, समगिरि और वसुगिरि नामके चार हरिवंशी राजा हो गये हैं ।।४१८-४१६॥ इन सबके अतीत होने पर महाराज विश्वावसु हुए और उनके बाद अहिंसा धर्म की रक्षा करनेवाले आप हुए हैं। आप ही सत्यवादी हैं इस प्रकार तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हैं। किसी भी दशामें संदेह होने पर आप विष अग्नि और तुलाके समान है। हे स्वामिन् ! आप ही विश्वास उत्पन्न करने वाले हैं अतः हम लोगो
पत्र करने वाले हैं अतः हम लोगोका संशय दर कीजिये। नारदने अहिंसालक्षण धर्म बतलाया है और पर्वत इसमें विपरीत कहता है अर्थात् हिंसाको धर्म बतलाता है । अब उपाध्याय-गुरुमहाराजका जैसा उपदेश हो वैसा आप कहिये ।
१ प्रतिबन्धनम् ल.। २ सोऽभिगम्यते ल०, म०।३ तज्जनो ज०। ४ विवादे यदि भङ्गोऽत्र भावी भावि यमाननम् । विद्धयस्य शरणं ( विद्धि अस्य इति पदच्छेदः) म०। ५ वंशजा हरेः म० । ६ याच्य-ल।
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