________________
२७४
महापुराणे उत्तरपुराणम् गुरुपल्यातनिर्दिष्ट बुध्यमानोऽपि भूपतिः। महाकालमहामोहेनाहितो दुःषमावधेः ॥ ४२५ ॥ सामीप्याद्रक्षणानन्दरौद्रध्यानपरायणः । पर्वताभिहितं तत्त्वं दृष्टे काऽनुपपन्नता ॥ ४२६ ॥ स्वर्गमस्यैव यागेन' सजानिः सगरोऽप्यगात् । ज्वलत्प्रदीपमन्येन को दीपेन प्रकाशयेत् ॥ ४२७ ॥ पर्वतोक्त' भयं हित्वा कुरुवं स्वर्गसाधनम् । इति हिंसानृतानन्दाद् वध्वायुर्नारक प्रति ॥ १२८ ॥ मिथ्यापापापवादाभ्यामभीरुरभणीदिदम् । अहो महीपतेर्वक्त्रादपूर्व घोरमीशम् ॥ १२९॥ निर्यातमिति वैषम्यादुक्त नारदतापसैः४ । आक्रोशदम्बरं नद्यः प्रतिकूलजलनवाः ॥ १३ ॥ सद्यः सरांसि शुष्काणि रक्तवृष्टिरनारता । तीव्रांशोरंशवो मन्दा विश्वाशाश्च मलीमसाः ॥१३॥ बभूवुः प्राणिनः कम्पमादधुर्भयविहलाः । तदा महाध्वनिर्धात्री द्विधाभेद"मुपागता ॥ १३२॥ वसोस्तस्मिन् महारन्ध्र न्यमजत्सिहविष्टरम् । तदुष्टा देवविद्याधरेशा घनपथे स्थिताः ॥ ४३३॥ अतिक्रम्बादिम मार्ग वसुराजमहामते । धर्मविध्वंसन मार्ग माभिधा इत्यघोषयन् ॥ ५३४ ॥ पर्वतं वसुराजं च सिंहासननिमजनात् । परिम्लानमुखौ दृष्ट्वा महाकालस्य किङ्कराः॥ ४३५ ॥ तापसाकारमादाय भयं माऽत्र स्म गच्छतम् । इत्यात्मोत्थापितं चास्या दर्शयन् हरिविष्टरम् ॥४३६ ॥ नुपोडप्यहं कथं तत्त्वविद्विभेम्यमृषं वचः । पर्वतस्यैव निश्चिन्वमित्याकण्ठं निमनवान् ॥ १३७ ।। अनेनेयमवस्थाभून्मिथ्यावादेन भूपते । त्यजेममिति सम्प्रार्थितोऽपि यत्नेन साधुभिः ॥ १३८ ।
इस प्रकार सब लोगोंने राजा वसुसे कहा। राजा वसु यद्यपि प्राप्त भगवान्के द्वारा कहे हुए धर्मतत्त्वको जानता था तथापि गुरुपत्नी उससे पहले ही प्रार्थना कर चुकी थी, इसके सिवाय वह नहाकालके द्वारा उत्पादित महामोहसे युक्त था, दुःषमा नामक पश्चम कालकी सीमा निकट थी, और वह स्वयं परिग्रहानन्द रूप रौद्र ध्यानमें तत्पर था अतः कहने लगा कि जो तत्त्व पर्वतने कहा है वही ठीक है। जो वस्तु प्रत्यक्ष दिख रही है उसमें बाधा हो ही कैसे सकती है ।। ४२०-४२६ ।। इस पर्वतके बताये यज्ञसे ही राजा सगर अपनी रानी सहित स्वर्ग गया है। जो दीपक स्वयं जल रहा है--स्वयं प्रकाशमान है भला उसे दूसरे दीपकके द्वारा कौन प्रकाशित करेगा ? ।। ४२७ ।। इसलिए तुम लोग भय छोड़कर जो पर्वत कह रहा है वही करो, वही स्वर्गका साधन है इस प्रकार हिंसानन्दी
नन्दी रोद्र ध्यानके द्वारा राजा वसुने नरकायुका बन्ध कर लिया तथा असत्य भाषणके पाप और लोकनिन्दासे नहीं डरने वाले राजा वसुने उक्त वचन कहे। राजा वसुकी यह बात सुनकर नारद और तपस्वी कहने लगे कि आश्चर्य है कि राजाके मुखसे ऐसे भयंकर शब्द निकल रहे हैं इसका कोई विषम कारण अवश्य है। उसी समय आकाश गरजने लगा, नदियोंका प्रवाह उलटा बहने लगा, तालाब शीघ्र ही सूख गये, लगातार रक्तकी वषो होने लगी, सूयेकी किरणे फीकी पड़ गई, समस्त दिशाएँ मलिन हो गई, प्राणी भयसे विह्वल होकर काँपने लगे, बड़े जोरका शब्द करती हुई पृथिवी फटकर दो टूक हो गई और राजा वसुका सिंहासन उस महागर्तमें निमग्न हो गया। यह देख आकाशमार्गमें खड़े हुए देव और विद्याधर कहने लगे कि हे बुद्धिमान् राजा वसु ! सनातन मार्गका उल्लंघन कर धर्म का विध्वंस करने वाले मार्गका निरूपण मत करो ॥४२८-४३४|| पृथिवीमें सिंहासन घुसनेसे पर्वत और राजा वसुका मुख फीका पड़ गया। यह देख महाकालके किंकर तापसियोंका वेष रखकर कहने लगे कि आप लोग भयको प्राप्त न हों। यह कहकर उन्होंने वसुका सिंहासन अपने आपके द्वारा उठाकर लोगोंको दिखला दिया। राजा वसु यद्यपि सिंहासनके साथ नीचे धंस गया था तथापि जोर देकर कहने लगा कि मैं तत्त्वोंका जानकार हूँ अतः इस उपद्रवसे कैसे र सकता हूं ? मैं फिर भी कहता हूं कि पर्वतके वचन ही सत्य हैं। इतना कहते ही वह कण्ठ पर्यन्त पृथिवीमें घुस गया। उस समय साधुओंने-तापसियोंने बड़े यत्नसे यद्यपि प्रार्थना की थी कि हे राजन् ! तेरी यह अवस्था असत्य भाषणसे ही हुई है इसलिए इसे छोड़ दे तथापि वह अज्ञानी यज्ञ
१ योगेन ल। २ हिंसानृतानन्दो क०, ख.। ३ नरकं ल०। ४ तापसाः ल०। ५ भक्ति-म०, ला।६ महापते ल०। ७ इत्यात्यस्थापितं क०, ख०, ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org