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सप्तषष्टितमं पर्व
२६६ ऋचो वेदरहस्यानीत्युत्पाद्याध्याप्य पर्वतम् । शान्तिपुष्ट्यभिचारात्मक्रियाः पूर्वोक्तमन्त्रणैः ॥ ३५६ ॥ निशिताः पवनोपेतवह्निज्वालासमाः फलम् । इष्टेरुत्पादमिष्यन्ति प्रयुक्ताः पशुहिंसनात् ॥ ३५२॥ ततः साकेतमध्यास्य शान्तिकादिफलप्रदम् । हिंसायागं समारभ्य प्रभावं विदधामहे ॥ ३५३॥ इत्युक्त्वा वैरिनाशार्थमात्मीयान् दितिपुत्रकान् । तीम्रान् सगरराष्ट्रस्य बाधां तीव्रज्वरादिभिः ॥ ३५४ ॥ कुरुध्वमिति सम्प्रेष्य सद्विजस्तत्पुरं गतः । सगरं मन्त्रगर्भाशीर्वादेनालोक्य पर्वतः ॥ ३५५॥ स्वप्रभाव प्रकाश्यास्य स्वदेशविषमाशिवम् | 'शममिष्यामि यज्ञेन समन्त्रेणाविलम्बितम् ॥ ३५६ ॥ यज्ञाय वेधसा सृष्टा पशवस्तद्विहिंसनात् । न पापं पुण्यमेव स्यात्स्वर्गोरुसुखसाधनम् ॥ ३५७॥ इति प्रत्याय्य तं पापः पुनरप्येवमब्रवीत् । त्वं पशूनां सहस्राणि षष्टिं यागस्य सिद्धये ॥ ३५८ ॥ कुरु संग्रहमन्यच्च द्रव्यं तद्योग्यमित्यसौ । राजापि सर्ववस्तूनि तथैवास्मै समर्पयत् ॥ ३५९॥ प्रारभ्य पर्वतो यागं प्राणिनोऽमन्त्रयत्तदा । महाकालः शरीरेण सह स्वर्गमुपागतः ॥ ३६०॥ इत्याकाशे विमानैस्तानीयमानानदर्शयत् । देशाशिवोपसर्गं च तदैवासौ निरस्तवान् ॥ ३६१॥ तद्दृष्ट्वा देहिनो मुग्धास्तत्प्रलम्भेन मोहिताः । तां गतिं प्रेप्सवो यागमृतिमाकांक्षयश्चलम् ॥३६२॥ तद्यज्ञावसितौ जात्यं हयमेकं विधानतः । इयाज सुलसां देवीमपि राजाज्ञया खलः ॥३६३॥ प्रियकान्तावियोगोत्थशोकदावानलचिषा । परिप्लुष्टतनू राजा राजधानीं प्रविष्टवान् ॥३६४॥ शय्यातले विनिक्षिप्य शरीरं प्राणिहिंसनम् । वृत्तं महदिदं धर्मः किमधर्मोऽयमित्यसौ ॥ ३६५॥ - संशयामस्तथान्येयुर्मुनिं यतिवराभिधम् । अभिवन्द्य मयारब्धं भट्टारक यथास्थितम् ॥३६६॥ हजार ऋचाएँ पृथक्-पृथक् स्वयं बनाईं। ये ऋचाएँ वेदका रहस्य बतलानेवाली थीं, उसने पर्वतके लिए इनका अध्ययन कराया और कहा कि पूर्वोक्त मन्त्रोंसे वायुके द्वारा बढ़ी हुई अग्निकी ज्वालामें शान्ति पुष्टि और अभिचारात्मक क्रियाएँ की जावें तो पशुओंकी हिंसासे इष्ट फलकी प्राप्ति हो जाती है । तदनन्तर उन दोनोंने विचार किया कि हम दोनों अयोध्या में जाकर रहें और शान्ति आदि फल प्रदान करनेवाला हिंसात्मक यज्ञ प्रारम्भ कर अपना प्रभाव उत्पन्न करें ।। ३५०-३५३ ॥ ऐसा कहकर महाकालने वैरियोंका नाश करनेके लिए अपने क्रूर असुरोंको बुलाया और आदेश दिया कि तुम लोग राजा सगरके देशमें तीव्र ज्वर आदिके द्वारा पीड़ा उत्पन्न करो । यह कहकर असुरोंको भेजा और स्वयं पर्वतको साथ लेकर राजा सगरके नगरमें गया । वहाँ मन्त्र मिश्रित आशीर्वादके द्वारा सगर के दर्शन कर पर्वत ने अपना प्रभाव दिखलाते हुए कहा कि तुम्हारे राज्यमें जो घोर अमंगल हो रहा है मैं उसे मन्त्रसहित यज्ञके द्वारा शीघ्र ही शान्त कर दूँगा ।। ३५४-३५६ ॥ विधाताने पशुओं की सृष्टि यज्ञके लिए ही की है अतः उनकी हिंसासे पाप नहीं होता किन्तु स्वर्गके विशाल सुख प्रदान करनेवाला पुण्य ही होता है ।। ३५७ ।। इस प्रकार विश्वास दिलाकर वह पापी फिर कहने लगा कि तुम यज्ञकी सिद्धिके लिए साठ हजार पशुओंका तथा यज्ञके योग्य अन्य पदार्थोंका संग्रह करो । राजा सगर ने भी उसके कहे अनुसार सब वस्तुएँ उसके लिए सौंप दीं ।। ३५८-३५६ ॥ इधर पर्वतने यज्ञ आरम्भ कर प्राणियोंको मन्त्रित करना शुरू किया— मन्त्रोच्चारण पूर्वक उन्हें यज्ञ-कुण्डमें डालना शुरू किया । उधर महाकालने उन प्राणियोंको विमानोंमें बैठाकर शरीर सहित आकाशमें जाते हुए दिखलाया और लोगोंको विश्वास दिला दिया कि ये सब पशु स्वर्ग गये हैं । उसी समय उसने देशके सब अमङ्गल और उपसर्ग दूर कर दिये ।। ३६० - ३६१ ।। यह देख बहुतसे भोले प्राणी उसकी प्रतारणा - मायासे मोहित हो गये और स्वर्ग प्राप्त करनेकी इच्छासे यज्ञमें मरनेकी इच्छा करने लगे ॥ ३६२ ॥ यज्ञके समाप्त होने पर उस दुष्ट पर्वतने विधि पूर्वक एक उत्तम जातिका घोड़ा तथा राजाकी आज्ञासे उसकी सुलसा नामकी रानीको भी होम दिया ।। ३६३ || प्रिय स्त्रीके वियोगसे उत्पन्न हुए शोक रूपी दावानलकी ज्वालासे जिसका शरीर जल गया है ऐसा राजा सगर राजधानी में प्रविष्ट हुआ ।। ३६४ ॥ वहाँ शय्यातल पर अपना शरीर डाल कर वह संशय करने लगा कि यह जो बहुत भारी प्राणियोंकी हिंसा हुई है सो यह धर्म है या अधर्म ? || ३६५ ।। ऐसा संशय करता हुआ
१ शेषयिष्यामि ल० । २ सुमित्रेणा ल० । ३ पुण्यमेवास्य ख० । ४ प्रत्याज्य क०, ख०, ग०, घ० ।
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