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महापुराणे उत्तरपुराणम
१कृतान्तारोहणासनसोपानपदवीरिव' । वलीरुद्वहता भूयः स्खलतेवान्धचक्षुषा ॥३३७॥ विरलेन शिरोजेन सितेन दधता ततम् । राजतं वा शिरस्त्राणमन्तिकान्तकजानयात् ॥३३८॥ जराङ्गनासमासङ्ग सुखाद्वामीलचक्षुषा । चलच्छिन्नकरेणेव करिणा कुपिताहिना ॥३३९॥ इवोर्चश्वासिना राजवल्लभेनेव नाग्रतः । प्रस्फुटं पश्यता भमपृष्ठेनापटुभाषिणा ॥३४०॥ राज्ञेव योग्यदण्डेन शमेनेव तनूभृता । विश्वभूनृपकन्यासु बद्धक्रोधमिवात्मनः ॥३४१॥ वक्तुं धारयता यज्ञोपवीतं त्रिगुणीकृतम् । तेन स्वाभिमतारम्भसिद्धिहेतुगवेषिणा ॥३४२॥ महाकालेन रष्टः सन् पर्वतः पर्वते भ्रमन् । प्रतिगम्य तमानम्य सोऽभ्यधादभिवादनम् ॥३४३॥ महाकालः समाश्वास्य स्वस्ति तेऽस्त्विति सादरम् । तमविज्ञातपूर्वत्वात्कुतस्स्यस्त्वं बनान्तरे ॥३४॥ परिश्रमणमेतत्ते ब्रूहि मे केन हेतुना । इत्यपृच्छदसौ चाह निजवृतान्तमादितः ॥३४५॥ तं निशम्य महाकालः सगरं मम वैरिणम् । निर्वशीकर्तुमेव स्यात्समर्थो मे प्रतिष्कसः ॥३४॥ इति निश्चित्य पापारमा विप्रलम्भनपण्डितः । त्वत्पिता स्थण्डिलो विष्णुरूपमन्युरहं च भोः ॥३४७॥
भौमोपाध्यायसान्निध्ये शास्त्राभ्यासमकुर्वहि। त्वत्पिता मे ततो विद्धि धर्मधाता तमीक्षितुम् ॥३४८॥ ममागमनमेतच वैफल्यं समपद्यत । मा भैषीः शत्रुविध्वंसे सहायस्ते भवाम्यहम् ॥३४९॥ इति क्षीरकदम्बात्मजेष्ठार्थानुगताः स्वयम् । आथर्वणगताषष्टिसहस्रप्रमिताः पृथक ॥३५०॥
अवस्थाके रूपमें था, वह बहुत-सी बलि अर्थात् शरीरकी सिकुड़नोंको धारण कर रहा था वे सिकुड़ने ऐसी जान पड़ती थीं मानो यमराजके चढ़नेके लिए सीदियोंका मार्ग ही हो। अन्धेकी तरह वह बारबार लड़खड़ाकर गिर पड़ता था, उसके शिर पर विरले विरले सफेद बाल थे, वह एक सफेद रङ्गकी पगड़ी धारण कर रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो यमराजके भयसे उसने चाँदीका टोप ही लगा रक्खा हो, उसके नेत्र कुछ-कुछ बन्द थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वृद्धावस्था रूपी स्त्रीके समागमसे उत्पन्न हुए सुखसे ही उसके नेत्र बन्द हो रहे थे, उसकी गति सूंड़ कटे हुए हाथीके समान थी, वह क्रुद्ध साँपके समान लम्बी-लम्बी श्वास भर रहा था, राजाके प्यारे मनुष्यके समान वह मदसे आगे नहीं देखता था, उसकी पीठ टूटी हुई थी। वह स्पष्ट नहीं बोल सकता था, जिस प्रकार राजा योग्य दण्डसे सहित होता है अर्थात् सबके लिए योग्य दण्ड-सजा देता है उसी प्रकार . वह भी योग्य दण्डसे सहित था-अर्थात् अपने अनुकूल दण्ड-लाठी लिये हुए था, ऊपरसे इतना शान्त दिखता था मानो शरीरधारी शम-शान्ति ही हो, विश्वभू मन्त्री, सगर राजा और सुलसा कन्याके ऊपर हमारा बैर बँधा हुआ है यह कहनेके लिए ही मानो वह तीन लड़ का यज्ञोपवीत धारण कर रहा था, वह अपना अभिप्राय सिद्ध करनेके लिए योग्य कारण खोज रहा था। ऐसे महाकालने पर्वत पर घूमते हुए क्षीरकदम्बकके पुत्र पर्वतको देखा। ब्राह्मण वेषधारी महाकालने पर्वतके सम्मुख जाकर उसे नमस्कार किया और पर्वतने भी उसका अभिवादन किया ।। ३३६-३४३ ॥ महाकालने आश्वासन देते हुए श्रादरके साथ कहा कि तुम्हारा भला हो। तदनन्तर अजान बनकर महाकालने पर्वतसे पूछा कि तुम कहाँसे आये हो और इस वनके मध्यमें तुम्हारा भ्रमण किस कारणसे हो रहा है ? पर्वतने भी प्रारम्भसे लेकर अपना सब वृत्तान्त कह दिया। उसे सुनकर महाकालने सोचा कि यह मेरे वैरी राजाको निवेश करनेके लिए समर्थ है, यह मेरा साधर्मी है। ऐसा विचार कर ठगनेमें चतुर पापी महाकाल पर्वतसे कहने लगा कि हे पर्वत ! तुम्हारे पिताने, स्थण्डिलने, विष्णुने, उपमन्यु ने और मैंने भौम नामक उपाध्यायके पास शास्त्राभ्यास किया था इसलिए तुम्हारे पिता मेरे धर्मभाई हैं। उनके दर्शन करनेके लिए ही मेरा यहाँ आना हुआ था परन्तु खेद है कि वह निष्फल हो गया। तुम डरो मत-शत्रुका नाश करनेमें मैं तुम्हारा सहायक हूँ ॥ ३४४-३४६ । इस प्रकार उस महाकालने वीरकदम्बकके पुत्र पर्वतके इष्ट अर्थका अनुसरण करनेवाली अथर्ववेद सम्बन्धी साठ
१ कृतान्त ल० । २ पदवीमिव ल०। ३ समासन्न ल०, म०। ४ कान्तासु ग०, ल०।५ प्रविलम्भन म०, ल०। ६ भीमोपाध्याय ल० । ७ अथर्वण ग०, म०।
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