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महापुराणे उत्तरपुराणम्
त्वया पूज्य यथोडिष्टं तत्तथैव मया कृतम् । इति वीतघृणो हर्षात्स्वप्रेषणमबूबुधत् ॥ ३०९ ॥ नारदोऽपि वनं यातोऽदृश्यदेशेऽस्य कर्णयोः । कर्तव्यवच्छेद इत्युक्तं गुरुणा चन्द्रभास्करौ ॥३१०॥ नक्षत्राणि ग्रहास्तारकाश्च पश्यन्ति देवताः । सदा सन्निहिता सन्ति पक्षिणो मृगजातयः ॥ ३११ ॥ नैते शक्त्या निराकर्तुमित्येत्य गुरुसन्निधिम् । भव्यात्माऽदृष्टदेशस्य वने केनाप्यसम्भवात् ॥ ३१२ ॥ नामादिचतुरर्थेषु पापापख्यातिकारण । क्रियायामविधेयत्वाच्चाहमानीतवानिमम् ॥ ३१३॥ इत्याह तद्वचः श्रुत्वा स्वसुतस्य जडात्मताम् । विचिन्त्यैकान्तवाद्युक्तं सर्वथा कारणानुगम् ॥ ३१४॥ कार्यमित्येतदेकान्तमन्तं कुमतमेव तत् । कारणानुमतं कार्यं कचित्तत्कचिदन्यया ॥ ३१५ ॥ इति स्याद्वादसन्दृष्टं सत्यमित्यभितुष्टवान् । शिष्यस्य योग्यतां चित्ते निधाय बुधसरामः ॥ ३१६ ॥ हे नारद त्वमेवात्र सूक्ष्मप्रज्ञो यथार्थवित् । इतः प्रभृत्युपाध्यापपदे त्वं स्थापितो मया ॥३१७॥ व्याख्येयानि त्वया सर्वशास्त्राणीति प्रपूज्य तम् । प्रावर्द्धयद् गुणैरेव प्रीतिः सर्वत्र धीमताम् ॥ ३१८ ॥ निजाभिमुखमासीनं तनूजं चैवमब्रवीत् । विनाङ्गत्वं विवेकेन " व्यधातद्विरूपकम् ॥३१९॥ कार्याकार्यविवेकस्ते न श्रुतादपि विद्यते । कथं जीवसि मच्चक्षुः परोक्षे गतधीरिति ॥३२०॥ एवं पित्रा सशोकेन कृतशिक्षोऽविचक्षणः । नारदे बद्धवैरोऽभूत्कुधियामीदृशी गतिः ॥३२१॥ स कदाचिदुपाध्यायः सर्वसङ्गान् परित्यजन् । पर्वतस्तस्य माता च मन्दबुद्धी तथापि तौ ॥३२२॥
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वकरेके दोनों कान काटकर पिताके पास वापस आ गया और कहने लगा कि हे पूज्य ! आपने जैसा कहा था मैंने वैसा ही किया है। इसप्रकार दयाहीन पर्वतने बड़े हर्षले अपना कार्य पूर्ण करनेकी सूचना पिताको दी ||३०८-३०६ ।। नारद भी वनमें गया और सोचने लगा कि 'अदृश्य स्थानमें जाकर इसके कान काटना है' ऐसा गुरुजीने कहा था परन्तु यहाँ अदृश्य स्थान है ही कहाँ ? देखो न, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारे आदि देवता सब ओरसे देख रहे हैं । पत्नी तथा हरिण आदि अनेक जङ्गली जीव सदा पास ही रह रहे हैं । ये किसी भी तरह यहाँ से दूर नहीं किये जा सकते। ऐसा विचारकर वह भव्यात्मा गुरुके पास वापिस आ गया और कहने लगा कि वनमें ऐसा स्थान मिलना असम्भव है जिसे किसीने नहीं देखा हो । इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि नाम स्थापना मुल्य और भाव इन चारों पदार्थोंमें पाप तथा निन्दा उत्पन्न करनेवाली क्रियाएँ करनेका विधान नहीं हैं. इसलिए मैं इस बकराको ऐसा ही लेता आया हूँ ।। ३१० - ३१३ ।। नारदके वचन सुनकर उस ब्राह्मणने अपने पुत्रकी मूर्खताका विचार किया और कहा कि जो एकान्तवादी कारणके अनुसार कार्य मानते हैं वह एकान्तवाद है और मिथ्यामत है, कहीं तो कारणके अनुसार कार्य होता है और कहीं इसके विपरीत भी होता है। ऐसा जो स्याद्वादका कहना है वही सत्य है । देखो मेरे परिणाम सदा दयासे रहते हैं परन्तु मुझसे जो पुत्र हुआ उसके परिणाम अत्यन्त निर्दय हैं । यहाँ कारण अनुसार कार्य कहाँ हुआ ? इस प्रकार वह श्रेष्ठ विद्वान् बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और शिष्यकी योग्यता का हृदयमें विचार कर कहने लगा कि हे नारद! तू ही सूक्ष्मबुद्धिवाला और पदार्थको यथार्थ जाननेवाला है इसलिए आजसे लेकर मैं तुझे उपाध्यायके पदपर नियुक्त करता हूं । आजसे तू ही समस्त शास्त्रोंका व्याख्यान करना । इस प्रकार उसीका सत्कार कर उसे बढ़ावा दिया सो ठीक ही है। क्योंकि सब जगह विद्वानोंकी प्रीति गुणोंसे ही होती है ।। ३१४-३१८ ।। नारदसे इतना कहनेके बाद उसने सामने बैठे हुए पुत्रसे इस प्रकार कहा- हे पुत्र ! तूने विवेकके बिना ही यह विरुद्ध कार्य किया है । देख, शास्त्र पढ़ने पर भी तुझे कार्य और अकार्यका विवेक नहीं हुआ ! तू निर्बुद्धि है अतः मेरी आँखोंके ओझल होने पर कैसे जीवित रह सकेगा ? इस प्रकार शोकसे भरे हुए पिताने पर्वतको शिक्षा दी परन्तु उस मूर्ख पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ। वह उसके विपरीत नारदसे वैर रखने लगा सो ठीक ही है क्योंकि दुर्बुद्धि मनुष्योंकी ऐसी ही दशा होती है ।। ३१६-३२१ ।। किसी
१ यथादिष्टं ल०, म० । २ तथा म० । ३ सन्निधौ म०, ल० । ४ विधायैतद्विरूपकम् क०, घ०, ख०, म० । विधा ह्येतद्विरूपकम् ल० ।
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