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सप्तषष्टितमं पर्व
पालनीयौ त्वया भद्र मत्परोक्षेऽपि सर्वथा । इत्यवोचत्वसुं सोऽपि प्रीतोऽस्मि त्वदनुग्रहात् ॥ ३२३॥ अनुक्तसिद्धमेतत्तु वक्तयं किमिदं मम । 'विधेयः संशयो नात्र पूज्यपाद यथोचितम् ॥३२४॥ परलोकमनुष्ठातुमर्हसीति द्विजोत्तमम् । मनोहरकथाम्लानमालयाभ्यर्चयन्नृपः ॥ ३२५ ॥
ततः क्षीरकदम्बे च सम्यक् सम्प्राप्य संयमम् । प्रान्ते संन्यस्य सम्प्राप्ते नाकिनां लोकमुत्तमम् ॥ ३२६ ॥ पर्वतोsपि पितृस्थानमध्यास्याशेषशास्त्रवित् । शिक्षाणां विश्वदिक्कानां व्याख्यातुं रतिमातनोत् ॥ ३२७॥ तस्मिन्नेव पुरे नारदोऽपि विद्वज्जनान्वितः । सूक्ष्मधीविहितस्थानी बभार व्याख्यया यशः ॥३२८॥ गच्छत्येवं तयोः काले कदाचित्साधुसंसदि । अजैर्होतव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थप्ररूपणे ॥ ३२९॥ विवादोऽभून्महांस्तत्र विगताङ्कुरशक्तिकम् । यवबीजं त्रिवर्षस्थमजमित्यभिधीयते ॥ ३३० ॥ तद्विकारेण सप्ताचिर्मुखे देवार्चनं विदः । वदन्ति यज्ञमित्याख्यदनुपद्धति नारदः ॥३३१॥ पर्वतोप्यजशब्देन पशुभेदः प्रकीर्त्तितः । यज्ञोऽग्नौ तद्विकारेण होत्रमित्यवदद्विधीः ॥ ३३२ ॥ "द्वयोर्वचनमाकर्ण्य द्विजप्रमुखसाधवः । मात्सर्यान्नारदेनैष धर्मः प्राणवधादिति ॥ ३३३ ॥ प्रतिष्ठापयितुं धात्र्यां दुरात्मा पर्वतोऽब्रवीत् । 'पतितोऽयमयोग्योऽतः सह सम्भाषणादिभिः ॥ ३३४ ॥ इति हस्ततलास्फालनेन निर्भर्त्स्य तं क्रुधा । घोषयामासुरत्रैव दुर्बुद्धेरीदृशं फलम् ॥३३५॥ एवं बहिः कृतः सर्वैर्मानभङ्गादगाद्वनम् । तत्र ब्राह्मणवेषेण वयसा परिणामिना ॥ ३३६ ॥
एक दिन क्षीरकदम्बकने समस्त परिग्रहोंके त्याग करनेका विचार किया इसलिए उसने राजा वसुसे कहा कि यह पर्वत और उसकी माता यद्यपि मन्दबुद्धि हैं तथापि हे भद्र ! मेरे पीछे भी तुम्हें इनका सब प्रकारसे पालन करना चाहिये । उत्तरमें राजा वसुने कहा कि मैं आपके अनुग्रहसे प्रसन्न हूं । यह कार्य तो बिना कहे ही करने योग्य है इसके लिए आप क्यों कहते हैं ? हे पूज्यपाद ! इसमें थोड़ा भी संशय नहीं कीजिये, आप यथायोग्य परलोकका साधन कीजिये । इस प्रकार मनोहर कथा रूपी अम्लान मालाके द्वारा राजा वसुने उस उत्तम ब्राह्मणका खूब ही सत्कार किया || ३२२-३२५ ।। तदनन्तर क्षीरकदम्बकने उत्तम संयम धारण कर लिया और अन्त में संन्यासमरण कर उत्तम स्वर्ग लोकमें जन्म प्राप्त किया || ३२६ ||
इधर समस्त शास्त्रोंका जाननेवाला पर्वत भी पिताके स्थान पर बैठकर सब प्रकार की शिक्षाओं की व्याख्या करनेमें प्रेम करने लगा ।। ३२७ ॥ उसी नगरमें सूक्ष्म बुद्धिवाला नारद भी अनेक विद्वानोंके साथ निवास करता था और शास्त्रोंकी व्याख्या के द्वारा यश प्राप्त करता था || ३२८ || इस प्रकार उन दोनोंका समय बीत रहा था। किसी एक दिन साधुओंकी सभा में 'अजैतव्यम्' इस वाक्यका अर्थनिरूपण करनेमें बड़ा भारी विवाद चल पड़ा। नारद कहता था कि जिसमें अङ्कुर उत्पन्न करनेकी शक्ति नष्ट हो गई है ऐसा तीन वर्षका पुराना जो अज कहलाता है और उससे बनी हुई वस्तुओं द्वारा अभिके मुखमें देवताकी पूजा करना - - आहुति देना यज्ञ कहलाता है । नारदका यह व्याख्यान यद्यपि गुरुपद्धतिके अनुसार था परन्तु निर्बुद्धि पर्वत कहता था कि अज शब्द एक पशु विशेषका वाचक है अतः उससे बनी हुई वस्तुओंके द्वारा अग्निमें होम करना यज्ञ कहलाता है ।। ३२६-३३२ ।। उन दोनोंके वचन सुनकर उत्तम प्रकृति वाले साधु पुरुष कहने लगे कि इस दुष्ट पर्वतकी नारदके साथ ईर्ष्या है इसीलिए यह प्राणवधसे धर्म होता है यह बात पृथिवी पर प्रतिष्ठापित करनेके लिए कह रहा है । यह पर्वत बड़ा ही दुष्ट है, पतित है अतः हम सब लोगोंके साथ वार्तालाप आदि करने में अयोग्य है ।। ३३३-३३४ ।। इस प्रकार सबने क्रोधवश हाथकी हथेलियोंके ताड़नसे उस पर्वतका तिरस्कार किया और घोषणा की कि दुर्बुद्धिका ऐसा फल इसी लोकमें मिल जाता है ।। ३३५ ।। इसप्रकार सबके द्वारा बाहर निकाला हुआ पर्वत मान भङ्ग होनेसे वनमें चला गया। वहाँ महाकाल नामका असुर ब्राह्मणका वेष रखकर भ्रमण कर रहा था । उस समय वह वृद्ध
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१ विधेथे ल०, म० । २ सम्प्राप्तो क०, घ० । ३ पदेन ल० । ४ प्रक्रीयेंते ल० । ५ तयोर्वचन-म०, ज्ञ० । ६ परितोऽयमयोग्यो नः क०, घ० । ७ क्रुध्वा क०, घ०, म० । क्रुधात् ल० ।
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