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सप्तषष्टितम पर्व प्रकृत्या त्वत्सुतो मन्दो नासूयास्मिन् विधीयताम् । इति तत्प्रत्ययं कर्तुं नारद सुतसन्निधौ ॥२९५॥ वद केन वने भाम्यन्पर्वतस्योदयादयः । विस्मयं बहिति प्राह सोऽपि सप्रश्रयोऽभ्यधात् ॥२९६॥ बनेऽहं पर्वतेनामा गच्छन्नर्मकथारतः । शिखिनां पीतवारीणां सयो नद्या निवर्तने ॥२९७॥ स्वचन्द्रककलापाम्भोमध्यमजनगौरवात् । भीत्वा व्यावृस्य विमुख कृतपश्चात्पदस्थितिः ।।२९८॥ कलापी गतवानेकः शेषाश्च तज्जलादिताः । पन्नभागं विधूयागुस्तं राष्ट्रा समभाषिषि ॥२९९॥ पुमानेकः खियश्चान्या इति मत्वानुमानतः । ततो वनान्तरात्किञ्चिदागत्य पुरसन्निधौ ॥३०॥ तथा करिण्याः पादाभ्यां पश्चिमाभ्यां प्रयाणके। स्वमूत्रघट्टनाडागे दक्षिणे तस्वीरुधाम् ॥३०॥ भङ्गेन मार्गात्प्रच्युत्य श्रमादारूढयोषितः । शीतच्छायाभिलाषेण सुप्तायाः पुलिनस्थले ॥३०२॥ उदरस्पर्शमार्गेण दशया गुल्मशक्कया। करिणीश्रितगेहाग्रसितोचकेतनेन च ॥३०३॥ मया तदुक्तमित्येतद्वचनाद् द्विजसत्तमः । निजापराधभावस्याभावमाविरभावयत् ॥३०४॥ तदा पर्वतमातापि प्रसमाभूत्पुनश्च सः। तस्यास्तन्मुनिवाक्यार्थसम्प्रत्ययविधित्सुकः ॥३०५॥ स्वपुत्रछात्रयोर्भावपरीक्षायै द्विजाग्रणीः। स्थित्वा सजानिरेकान्ते कृत्वा पिष्टेन वस्तकौ ॥३०॥ देशेऽचिंत्वा परादृश्ये गन्धमाल्यादिमङ्गलैः। कर्णच्छेदं४ विधायैतावयैवानयतं युवाम् ॥३०७॥
इत्यवादीचतः पापी पर्वतोऽस्ति न कश्चन । बनेऽस्मिन्निति विच्छिय कौँ पितरमागतः ॥३०८॥ सुनकर ज्ञानियोंसे श्रेष्ठ ब्राह्मण कहने लगा कि मैं तो सबको एकसा-उपदेश देता हूँ परन्तु प्रत्येक पुरुषकी बुद्धि भिन्न भिन्न हुआ करती है यही कारण है कि नारद कुशल हो गया है। तुम्हारा पुत्र स्वभावसे ही मन्द है, इसलिए नारदपर व्यर्थ ही ईर्ष्या न करो। यह कहकर उसने विश्वास दिलानेके लिए पुत्रके समीप ही नारदसे कहा कि कहो, आज वनमें घूमते हुए तुमने पर्वतका क्या उपद्रव किया था ? गुरुकी बात सुनकर वह कहने लगा कि बड़ा आश्चर्य है ? यह कहते हुए उसने बड़ी विनयसे कहा कि मैं पर्वतके साथ विनोद-वार्ता करता हुआ वनमें जा रहा था। वहाँ मैंने देखा कि कुछ मयूर पानी पीकर नदीसे अभी हाल लौट रहे हैं ॥२६३-२६७ ॥ उनमें जो मयूर था वह अपनी पूंछके चन्द्रक पानीमें भीगकर भारी हो जानेके भयसे अपने पैर पीछेकी ओर रख फिर मुँह फिराकर लौटा था और बाकी जलसे भीगे हुए अपने पड फटकारकर जा रहे थे। यह देख मैंने अनुमान द्वारा पर्वतसे कहा था कि इनमें एक पुरुष है और बाकी स्त्रियाँ हैं। इसके बाद वनके मध्यसे चलकर किसी नगरके समीप देखा कि चलते समय किसी हस्तिनीके पिछले पैर उसीके मूत्रसे भीगे हुए हैं इससे मैंने जाना कि यह हस्तिनी है । उसके दाहिनी ओरके वृक्ष और लताएँ टूटी हुई थीं इससे जाना कि यह हथिनी बाँई आँखसे कानी है। उसपर बैठी हुई स्त्री मार्गकी थकावटसे उतरकर शीतल छायाकी इच्छासे नदीके किनारे सोई थी वहाँ उसके उदरके स्पर्शसे जो चिह्न बन गये थे उन्हें देखकर मैंने जानता था कि यह स्त्री गर्भिणी है । उसकी साड़ीका एक छोड़ किसी झाड़ीमें उलझकर लग गया था इससे जाना था कि वह सफेद साड़ी पहने थी। जहाँ हस्तिनी ठहरी थी उस घरके अप्रभागपर सफेद ध्वजा फहरा रही थी इससे अनुमान किया था कि इसके पुत्र होगा। इसप्रकार अनुमानसे मैने ऊपरकी सब बातें कही थीं। नारदकी ये सब बातें सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने ब्राह्मणीके समक्ष प्रकट कर दिया कि इसमें मेरा अपराध कुछ भी नहीं है-मैंने दोनोंको एक समान उपदेश दिया है ।।२९८-३०४॥ उस समय पर्वतकी माता भी यह सब सुनकर बहुत प्रसन्न हुई थी। तदनन्तर उस ब्राह्मणने पर्वतकी माताको उन मुनियोंके वचनोंका विश्वास दिलानेकी इच्छा की। वह अपने पुत्र पर्वत और विद्यार्थी नारदके भावोंकी परीक्षा करनेके लिए स्त्रीसहित एकान्तमें बैठा। उसने आटेके दो बकरे बनाकर पर्वत और नारदको सौंपते हुए कहा कि जहाँ कोई देख न सके ऐसे स्थानमें ले जाकर चन्दन तथा माला आदि माङ्गलिक पदार्थोंसे इनकी पूजा करो और फिर कान काटकर इन्हें आज ही यहाँ ले आयो । ३०५-३०७ ॥ तदनन्तर पापी पर्वतने सोचा कि इस वनमें कोई नहीं है इसलिए वह एक
१ विधीयते म०, ल०२ कर्मकथारतः क०, घ० । नर्मकयान्तरम् ल । ३ तजलातिं ख०, म । ४ विधाना-ल
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