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सप्तषष्टितमं पर्व
हिंसाधनं विनिश्चित्य नरकावासमेष्यति । परोऽब्रवीदयं मध्यस्थितो ब्राह्मणपुत्रकः ॥ २६६॥ पर्वताख्यो विधीः क्रूरो महाकालोपदेशनात् । पठित्वाथर्वणं पापशास्त्रं दुर्मार्गदेशकः ॥ २६७॥ हिंसैव धर्म इत्यज्ञो रौद्रध्यानपरायणः । बहुस्तत्र प्रवर्त्यास्मिन् नरकं यास्यतीत्यतः ॥२६८॥ तृतीयोऽपि ततोsवादीदेष पश्चादवस्थितः । नारदाख्यो द्विजो धीमान् धर्मध्यानपरायणः ॥ २६९ ॥ अहिंसालक्षणं धर्ममाश्रितानामुदाहरन् । पतिगिरितटाख्यायाः पुरो भूत्वा परिग्रहम् ॥२७०॥ परित्यज्य तपः प्राप्य प्रान्तानुत्तरमेष्यति । इत्येवं तैस्त्रिभिः प्रोक्तं श्रुत्वा सम्यग्मयोदितम् ॥ २७१॥ सोपदेशं धृतं सर्वैरित्यस्तावीन्मुनिश्च तान् । सर्वमेतदुपाध्यायः प्रत्यासन्नद्रुमाश्रयः ॥ २७२॥ प्रणिधानादाकर्ण्य तदेतद्विधिचेष्टितम् । एतयोरशुभं धिग्धिक् किं मयात्र विधीयते ॥ २७३ ॥ विचिन्त्येति यतीन् भक्त्या तत्स्थ एवाभिवन्द्य तान् । वैमनस्येन तैरच्छान्त्रैर्नगरं प्राविशत् समम् ॥ २७४ ॥ शास्त्रबालत्वयोरेकवत्सरे परिपूरणे । वसोः पिता स्वयं पहं वध्वा प्रायात्तपोवनम् ॥ २७५ ॥ वसुः निष्कण्टकं पृथ्वीं पालयन् हेलयान्यदा । वनं विहर्तुमभ्येत्य पयोधरपथाद् द्विजान् ॥२७६॥ प्रस्वल्य पतितान् वीक्ष्य विस्मयादिति खाद् द्रुतम् । पततां हेतुनावश्यं भवितव्यमिति स्फुटम् ॥ २७७॥ मत्वाकृष्यधनुर्बाणममुञ्चरात्प्रदेशवित् । स्खलित्वा पतितं तस्मात्तं समीक्ष्य महीपतिः ॥ २७८ ॥ तत्प्रदेशं स्वयं गत्वा रथिकेन सहास्पृशत् । आकाशस्फटिकस्तम्भं विज्ञायाविदितं परैः ॥ २७९ ॥
हमारे पास बैठा हुआ है वह तीव्र रागादिदूषित है अतः हिंसारूप धर्मका निश्चयकर नरक जावेगा । तदनन्तर बीचमें बैठे हुए दूसरे मुनि कहने लगे कि यह जो ब्राह्मणका लड़का है इसका पर्वत नाम है, यह निर्बुद्धि है, क्रूर है, यह महाकालके उपदेश से अथर्ववेद नामक पापप्रवर्तक शास्त्रका अध्ययनकर खोटे मार्गका उपदेश देगा, यह अज्ञानी हिंसाको ही धर्म समझता है, निरन्तर रौद्रध्यानमें तत्पर रहता है और बहुत लोगोंको उसी मिथ्यामार्ग में प्रवृत्त करता है अतः नरक जावेगा ।। २६५२६८ ॥ तदनन्तर तीसरे मुनि कहने लगे कि यह जो पीछे बैठा है इसका नारद नाम है, यह जातिका ब्राह्मण है, बुद्धिमान् है, धर्मध्यानमें तत्पर रहता है, अपने आश्रित लोगोंको अहिंसारूप धर्मका उपदेश देता है, यह आगे चलकर गिरितट नामक नगरका राजा होगा और अन्तमें परिग्रह छोड़कर तपस्वी होगा तथा अन्तिम अनुत्तर विमानमें उत्पन्न होगा । इस प्रकार उन तीनों मुनियोंका कह सुनकर श्रुतधर मुनिराजने कहा कि तुम लोगोंने मेरा कहा उपदेश ठीक ठीक ग्रहण किया है' ऐसा कहकर उन्होंने उन तीनों मुनियोंकी स्तुति की। इधर एक वृक्षके आश्रयमें बैठा हुआ क्षीरकदम्ब उपाध्याय, यह सब बड़ी सावधानीसे सुन रहा था। सुनकर वह विचारने लगा कि विधिकी लीला बड़ी ही विचित्र है, देखो, इन दोनोंकी - पर्वत और वसुकी अशुभगति होनेवाली है, इनके अशुभ कर्मको धिक्कार हो, धिक्कार हो, मैं इस विषय में कर ही क्या सकता हूँ ? ।। २६६-२७३ ।। ऐसा विचारकर उसने उन मुनियोंको वहीं वृक्षके नीचे बैठे बैठे भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और फिर बड़ी उदासीनतासे उन तीनों छात्रोंके साथ वह अपने नगरमें आ गया ।। २७४ ।। एक वर्षके बाद शास्त्राध्ययन तथा बाल्यावस्था पूर्ण होनेपर वसुके पिता विश्वावसु, वसुको राज्यपट्ट बाँधकर स्वयं तपोवनके लिए चले गये || २७५ ।। इधर वसु पृथिवीका अनायास ही निष्कण्टक पालन करने लगा । किसी एक दिन वह विहार करने के लिए वनमें गया था। वहीं क्या देखता है कि बहुतसे पक्षी आकाशमें जाते-जाते टकराकर नीचे गिर रहे हैं । यह देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह विचार करने लगा कि आकाशसे जो ये पक्षी नीचे गिर रहे हैं इसमें कुछ कारण अवश्य होना चाहिये ।। २७६-२७७ ।। यह विचार, उसने उस स्थानका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए धनुष खींचकर एक वाण छोड़ा वह वाण भी वहाँ टकराकर नीचे गिर पड़ा। यह देख, राजा वसु वहाँ स्वयं गया और सारथिके साथ उसने उस स्थानका स्पर्श किया । स्पर्श करते ही उसे मालूम हुआ कि यह आकाश स्फटिकका स्तम्भ है, वह स्तम्भ आकाशके रङ्गसे इतना मिलता जुलता था कि किसी दूसरेको
१ नारकावास म०, ल० । २ परों क० ख० घ० । ३ पनिर्तम्मात ल० (१) ।
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