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सप्तषष्टितमं पर्व
प्रपन्नस्तद्विदित्वा गुर्मुदं सगरभूपतिः । विश्वभूश्चेष्टसंसिद्धावन्ये च कुटिलाशयाः ॥ २३७ ॥ सन्तस्तद्बान्धवाश्वान्ये विषादमगमस्तदा । न पश्यन्त्यर्थिनः पापं वञ्चनासञ्चितं महत् ॥ २३८॥ अथ कृत्वा महापूजां दिनान्यष्टौ जिनेशिनाम् । तदन्तेऽभिषवं चैनां सुलसां कन्यकोत्तमाम् ॥ २३९ ॥ स्नातामलंकृतां शुद्धतिथिवारादिसन्निधौ । पुरोधा रथमारोप्य नीत्वा चारुभटावृताम् ॥ २४० ॥ नृपान् भद्रासनारूढान् स स्वयंवर मण्डपे । यथाक्रमं विनिर्दिश्य कुलजात्यादिभिः पृथक् ॥ २४१ ॥ व्यरमत् सा समासक्ता साकेतपुरनायकम् । अकरोत्कण्ठदेशे तं मालालंकृतविग्रहम् ॥ २४२ ॥ अनयोरनुरूपोऽयं सङ्गमो वेधसा कृतः । इत्युक्त्वा मत्सरापेतमतुष्यद्रूपमण्डलम् ॥ २४३ ॥ कल्याणविधिपर्याप्तौ स्थित्वा तत्रैव कानिचित् । दिनानि सागरः श्रीमान् सुखेन सुलसान्वितः ॥ २४४ ॥ साकेतनगरं गत्वा भोगाननुभवन् स्थितः । मधुपिङ्गलसाधोश्च वर्तमानस्य संयमे ॥ २४५ ॥ पुरमेकं तनुस्थित्यै विशतो वीक्ष्य लक्षणम् । कश्चिनैमितिको यूनः पृथ्वीराज्याईदेहजैः ३ ॥ २४६ ॥ लक्षणैरेष भिक्षाशी किल किं लक्षणागमैः ४ । इत्यनिन्दरादाकर्ण्य परोऽप्येवमभाषत ॥ २४७ ॥ एष राज्यश्रियं" भुअन् मृषा सगरमन्त्रिणा । कृत्रिमागममा 'दश्यं दूषितः सन् ह्रिया तपः ॥ २४८ ॥ प्रपद्मवान् गते चास्मिन् सुलसां सगरोऽग्रहीत् । इति तद्वचनं श्रुत्वा मुनिः क्रोधाग्निदीपितः ॥ २४९ ॥ जन्मान्तरे फलेनास्य तपसः सगरान्वयम् । सर्व निर्मूलयामीति विधीः कृतनिदानकः ॥ २५० ॥ म्रुत्वासाबसुरेन्द्रस्य महिषानीक आदिमे । कक्षाभेदे चतुःषष्टिसहस्रासुरनायकः ॥ २५१ ॥
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यह जानकर अपनी इष्टसिद्धि होनेसे राजा सगर, विश्वभू मन्त्री तथा कुटिल अभिप्रायवाले अन्य मनुष्य हर्षको प्राप्त हुए || २३६ - २३७ ॥ मधुपिङ्गलके भाई-बन्धुओं को तथा अन्य सज्जन मनुष्योंको उस समय दुःख हुआ। देखो स्वार्थी मनुष्य दूसरोंको ठगनेसे उत्पन्न हुए बड़े भारी पापको नहीं देखते हैं ॥ २३८ ॥ इधर राजा सुयोधनने आठ दिनतक जिनेन्द्र भगवान्की महापूजा की, और उसके अन्तमें अभिषेक किया । तदनन्तर उत्तम कन्या सुलसाको स्नान कराया, आभूषण पहिनाये, और शुद्ध तिथि वार आदिके दिन अनेक उत्तम योद्धाओंसे घिरी हुई उस कन्याको पुरोहित रथमें बैठाकर स्वयंवर - मण्डपमें ले गया ।। २३६ - २४० ॥ वहाँ अनेक राजा उत्तम उत्तम आसनोंपर समारूढ़ थे । पुरोहित उनके कुल जाति आदिका पृथक् पृथक् क्रम पूर्वक निर्देश करने लगा परन्तु सुलसा अयोध्या के राजा सगर में आसक्त थी अतः उन सब राजाओंको छोड़ती हुई आगे बढ़ती गई और सगरके गलेमें ही माला डालकर उसका शरीर मालासे अलंकृत किया ।। २४१-२४२ ।। 'इन दोनोंका समागम विधाताने ठीक ही किया है' यह कहकर वहाँ जो राजा ईर्ष्या रहित थे वे बहुत ही सन्तुष्ट हुए ।। २४३ || विवाहकी विधि समाप्त होनेपर लक्ष्मीसम्पन्न राजा सगर सुलसाके साथ वहीं पर कुछ दिनतक सुखसे रहा ।। २४४ ॥ तदनन्तर अयोध्या नगरी में जाकर भोगोंका अनुभव करता हुआ सुखसे रहने लगा। इधर मधुपिङ्गल साधु-संयम धारण कर रहे थे । एक दिन वे आहारके लिए किसी नगर में गये थे । वहाँ कोई निमित्तज्ञानी उनके लक्षण देखकर कहने लगा कि 'इस युवाके चिह्न तो पृथिवीका राज्य करनेके योग्य हैं परन्तु यह भिक्षा भोजन करनेवाला है इससे जान पड़ता है कि इन सामुद्रिक शास्त्रोंसे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? ये सब व्यर्थ हैं'। इस प्रकार उस निमित्तज्ञानीने लक्षणशास्त्र - सामुद्रिक शास्त्रकी निन्दा की । उसके साथ ही दूसरा निमित्तज्ञानी था वह कहने लगा कि 'यह तो राज्यलक्ष्मीका ही उपभोग करता था परन्तु सगर राजाके मन्त्रीने झूठ झूठ ही कृतिमशास्त्र दिखलाकर इसे दूषित ठहरा दिया और इसीलिए इसने लज्जावश तप धारण कर लिया। इसके चले जानेपर सगरने सुलसाको स्वीकृत कर लिया। उस निमित्तज्ञानीके वचन सुनकर मधुपिङ्गल मुनि क्रोधामिसे प्रज्वलित हो गये ।। २४५ - २४६ ॥ मैं इस तपके फलसे दूसरे जन्म में राजा सगरके समस्त वंशको निर्मूल करूँगा' ऐसा उन बुद्धिहीन मधुपिङ्गल मुनिने
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१ विदित्वागात् ख० म० । विदित्वापु-ल० । २ पर्याप्तो ल० । ३ देहज: ब० । ४-गमे ख० । ५ श्रियो ग० । ६ - माकर्ण्य ल० ।-माकल्प्य म० ।
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