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सप्तषष्टितमं पर्व
द्वितीय 'ज्ञानवेदस्य सामान्येन सतः सदा । द्रव्यक्षेत्रादिभेदेन कर्तृणां तीर्थदेशिनाम् ॥ २०८ ॥ पञ्चकल्याणभेदेषु देवयज्ञविधानतः । चितपुण्यफलं भुक्त्वा क्रमेणाप्स्यन्ति सिद्धताम् ॥ २०९ ॥ यागोऽयमृषिभिः प्रोक्तो यत्यगारिद्वयाश्रयः । आद्यो मोक्षाय साक्षात्स्यात्स्यात्परम्परया परः ॥२१०॥ एवं परम्परायातदेव यज्ञविधिष्विह । द्विलोकहितकृत्येषु वर्तमानेषु सन्ततम् ॥ २११ ॥ मुनिसुव्रततीर्थेशसन्ताने सगरद्विषः । महाकालासुरो हिंसायज्ञमज्ञोऽन्वशादमुम् ॥ २१२ ॥ कथं तदिति चेदस्मिन् भारते चारणादिके । युगले नगरे राजाऽजनि नाम्ना सुयोधनः ॥ २१३ ॥ देवी तस्यातिधिख्यातिस्तनूजा सुलसाऽनयोः । तस्याः स्वयंवरार्थेन दूतोक्त्या पुरमागते ॥ २१४॥ महीशमण्डले साकेतेशिनं सगराह्वयम् । तत्रागन्तुं समुद्युक्तमन्यदा "स्वशिरोरुहाम् ॥ २१५ ॥ कलापे पलितं प्राच्यं ज्ञात्वा तैलोपलेपिना । निर्विद्य विमुखं याते विलोक्य कुशला तदा ॥ २१६ ॥ धात्री मन्दोदरी नाम तमित्वा पलितं नवम् । पवित्रं द्रव्यलाभं ते वदतीत्यत्यबूबुधत् ॥ २१७ ॥ तत्रैव सचिव विश्वभूरप्येत्यान्य भूभृताम् । पराङ्मुखी सा त्वामेव सुलसाभिलषत्यलम् ॥ २१८ ॥ यथा तथाहं कर्तास्मि कौशलेनेत्यभाषत । तद्वचः श्रवणात्प्रीतः साकेतनगराधिपः ॥ २१९ ॥ चतुरङ्गबलेनामा सुयोधनपुरं ययौ । दिनेषु केषुचिरात्र " यातेषु सुलसाऽन्तिके ॥ २२०॥ मन्दोदर्याः कुलं रूपं सौन्दर्य विक्रमो नयः । विनयो विभवो बन्धुः सम्पदन्ये च ये स्तुताः ॥ २२१ ॥ गुणा वरस्य तेsयोध्यापुरेशे राजपुत्रिका । तत्सर्वमवगम्यासीत्तस्मिन्नासंजिताशया ॥ २२२ ॥
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माननीय पदोंपर अधिष्ठित होकर लौकान्तिक नामक देव ब्राह्मण होते हैं और अन्तमें समस्त पापों को नष्टकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। २०४- २०७ ।। दूसरा श्रुतज्ञानरूपी वेद सामान्यकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है, उसके द्रव्य क्षेत्र आदिके भेदसे अथवा तीर्थंकरोंके पञ्च कल्याणकोंके भेदसे अनेक भेद हैं, उन सबके समय जो श्री जिनेन्द्रदेवका यज्ञ अर्थात् पूजन करते हैं वे पुण्यका सञ्चय करते हैं और उसका फल भोगकर क्रम क्रमसे सिद्ध अवस्था - मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। २०८ - २०६ ॥ इस प्रकार ऋषियोंने यह यज्ञ मुनि और गृहस्थके आश्रम से दो प्रकारका निरूपण किया है इनमें से पहला मोक्षका साक्षात् कारण है और दूसरा परम्परासे मोक्षका कारण है ।। २१० ।। इस प्रकार यह देवयज्ञकी विधि परम्परासे चली आई है, यही दोनों लोकोंका हित करनेवाली है और यही निरन्तर विद्यमान रहती है ।। २११ ।। किन्तु श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरके तीर्थमें सगर राजासे द्वेष रखनेवाला एक महाकाल नामका असुर हुआ । उसी अज्ञानीने इस हिंसा यज्ञका उपदेश दिया है || २१२ ॥ महाकाल ने ऐसा क्यों किया। यदि यह जाननेकी इच्छा है तो सुन लीजिये । इसी भरत क्षेत्र में चारणयुगल नामका नगर है। उसमें सुयोधन नामका राजा राज्य करता था ।। २१३ ।। उसकी पट्टरानीका नाम अतिथि था, इन दोनोंके सुलसा नामकी पुत्री थी । उसके स्वयंवरके लिए दूतोंके कहनेसे अनेक राजाओं का समूह चारणयुगल नगरमें आया था। अयोध्याका राजा सगर भी उस स्वयंवरमें जानेके लिए उद्यत था परन्तु उसके बालोंके समूहमें एक बाल सफेद था, तेल लगानेवाले सेवकले उसे विदित हुआ कि यह बहुत पुराना है यह जानकर वह स्वयंवरमें जानेसे विमुख हो गया, उसे निर्वेद वैराग्य हुआ। राजा सगरकी एक मन्दोदरी नामकी धाय थी जो बहुत ही चतुर थी। उसने सगरके पास जाकर कहा कि यह सफेद बाल नया है और तुम्हें किसी पवित्र वस्तुका लाभ होगा यह कह रहा है । उसी समय विश्वभू नामका मन्त्री भी वहाँ आ गया और कहने लगा कि यह सुलसा अन्य राजाओंसे विमुख होकर जिस तरह आपको ही चाहेगी उसी तरह मैं कुशलतासे सब व्यवस्था कर दूँगा । मन्त्रीके वचन सुननेसे राजा सगर बहुत ही प्रसन्न हुआ ।। २१४-२१६ ।। वह चतुरङ्ग सेनाके साथ राजा सुयोधनके नगरकी ओर चल दिया और कुछ दिनों में वहाँ पहुँच भी गया । सगरकी मन्दोदरी धाय उसके साथ आई थी। उसने सुलसाके पास जाकर राजा सगरके कुल, रूप, सौन्दर्य, पराक्रम, नय, विनय, विभव, बन्धु, सम्पत्ति तथा योग्य
१ यज्ञवेदस्य क्ष० । २ देवा यज्ञ ल० । ३ वेदयज्ञ ख० । ४ स्वशिरोरुह-म० । ५ याते ल० ।
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