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महापुराणे उत्तरपुराणम् शतक्रतुः शतमखः शतावर इति श्रुताः' । प्रादुर्भूताः प्रसिद्धास्ते लोकेषु समयेषु च ॥ १९५॥ हिंसार्थो यज्ञशब्दश्चेतकर्तनारकी गतिः। प्रयाति सोऽपि चेत्स्वर्ग विहिंसानामधोगतिः ॥ १९६ ॥ तव स्यादित्यभिप्रायो हिंस्यमानाङ्गिदानतः । तद्वधेन च देवानां पूज्यत्वाद्यज्ञ इत्ययम् ॥ १९७ ॥ वर्तते देवपूजायां दाने चान्वर्थतां गतः । एतत्स्वगृहमान्यं ते यद्यस्मिन्मेष २इत्यपि ॥ १९८ ॥ हिंसायामिति धात्वर्थपाठे किं न विधीयते । न हिंसा यज्ञशब्दार्थों यदि प्राणवधात्मकम् ॥ १९९ ॥ गझं कथं चरन्त्यार्या इत्यशिक्षितलक्षणम् । आर्षानार्षविकल्पेन यागो द्विविध इष्यते ॥ २० ॥ तीर्थेशा जगदाद्येन परमब्रह्मणोदिते । वेदे जीवादिषडगव्यभेदे याथात्म्यदेशने ॥ २०१॥ अयोऽग्नयः समुद्दिष्टाः क्रोधकामोदराग्नयः । तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहुतिभिर्वने ॥ २०२॥ स्थित्व पियतिमुन्यस्त'शरणाः परमद्विजाः । इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थामष्टमीमवनी ययुः ॥२०३॥ तथा तीर्थगणाधीशशेषकेवलिसद्वपुः। संस्कारमहिताग्नीन्द्रमुकुटोत्थाग्निषु त्रिषु ॥ २०४ ॥ परमात्मपदं प्राप्तान्निजान् पितृपितामहान् । उद्दिश्य भाक्तिकाः पुष्पगन्धाक्षतफलादिभिः॥ २०५ ॥ आर्योपासकवेदोक्तमन्त्रोच्चारणपूर्वकम् । दानादिसस्क्रियोपेता गेहाश्रमतपस्विनः ॥ २०६ ॥
नित्यमिष्टुन्द्रसामानिकादिमान्यपदोदिताः । लौकान्तिकाश्च भूत्वामरद्विजा ध्वस्तकल्मषाः ॥ २०७॥ करते हैं और उसीके परिपाकसे देवेन्द्र होते हैं। इसलिए ही लोक और शास्त्रों में इन्द्रके शतक्रतु, शतमख और शताध्वर आदि नाम प्रसिद्ध हुए हैं तथा सब जगह सुनाई देते हैं। १६४-१६५ ॥ यदि यज्ञ शब्दका अर्थ हिंसा करना ही होता है तो इसके करनेवालेकी नरक गति होनी चाहिये । यदि ऐसा हिंसक भी स्वर्ग चला जाता है तो फिर जो हिंसा नहीं करते हैं उनकी अधोगति होना चाहिये-उन्हें नरक जाना चाहिये ।। १६६॥ कदाचित् आपका यह अभिप्राय हो कि यज्ञमें जिसकी हिंसा की जाती है उसके शरीरका दान किया जाता है अर्थात् सबको वितरण किया जाता है और उसे मारकर देवोंकी पूजा की जाती है इस तरह यज्ञ शब्दका अर्थ जो दान देना और पूजा करना है उसकी सार्थकता हो जाती है ? तो आपका यह अभिप्राय ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह दान और पूजाका जो अथे आपने किया है वह आपके ही घर मान्य होगा, सर्वत्र नहीं। यदि यज्ञ शब्दका अर्थ हिंसा ही है तो फिर धातुपाठमें जहाँ धातुओंके अर्थ बतलाये हैं वहाँ यजधातुका अर्थ हिंसा क्यों नहीं बतलाया ? वहाँ तो मात्र 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' अर्थात् यज धातु, देपूँजा, संगतिकरण और दान देना इतने अर्थों में आती है।' यही बतलाया है। इसलिए यज्ञ शब्दका अर्थ हिंसा करना कभी नहीं हो सकता। कदाचित् आप यह कहें कि यदि हिंसा करना यज्ञ शब्दका अर्थ नहीं है तो आर्य पुरुष प्राणिहिंसासे भरा हुआ यज्ञ क्यों करते हैं ? तो आपका यह कहना अशिक्षित अथवा मूर्खका लक्षण है-चिह्न है। क्योंकि आर्य और अनार्यके भेदसे यज्ञ दो प्रकारका माना जाता है ।। १६७-२०० ।। इस कर्मभूमि रूपी जगत्के आदिमें होनेवाले परमब्रह्म श्रीवृषभदेव तीर्थकरके द्वारा कहे हुए वेदमें जिसमें कि जीवादि छह द्रव्योंके भेदका यथार्थ उपदेश दिया गया है क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि ये तीन अग्नियाँ बतलाई गई हैं। इनमें क्षमा वैराग्य और अनशनकी आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि यति मुनि और अनगाररूपी श्रेष्ठ द्विज वनमें निवास करते हैं वे आत्मयज्ञकर इष्ट अर्थको देनेवाली अष्टम पृथिवी-मोक्ष स्थानको प्राप्त होते हैं । २०१-२०३ ।। इसके सिवाय तीर्थकर गणधर तथा अन्य केवलियों के उत्तम शरीरके संस्कारसे पूज्य एवं अग्निकुमार इन्द्र के मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन अग्नियाँ हैं उनमें अत्यन्त भक्त तथा दान आदि उत्तमोत्तम क्रियाओंको करनेवाले तपस्वी, गृहस्थ, परमात्मपदको प्राप्त हुए अपने पिता तथा प्रपितामहको उद्देशकर ऋपिप्रणीत वेदमें कहे मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए जो अक्षत गन्ध फल आदिके द्वारा आहुति दी जाती है वह दूसरा आर्ष यज्ञ कहलाता है। जो निरन्तर यह यज्ञ करते हैं वे इन्द्र सामानिक आदि
१ श्रुतिः ल० । २ इष्यते म०, ल०। ३ ख पुस्तके २०१-२०२ पद्ययोः क्रमपरिवर्तो विद्यते । ४ स्थित्वार्ष ख० । ५ अनगाराः।
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