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महापुराणे उत्तरपुराणम्
सद्विदित्वाऽतिथिर्युक्तिमद्वचोभिः प्रदूष्य तम् । सुरम्यविषये पोदनाभीड़ बाहुबलीशिनः ॥ २२३ ॥ कुठे महीभुजां ज्येष्ठो मद्भ्राता तृणपिङ्गलः । तस्य सर्वयशा देवी तयोस्तुग्मधुपिङ्गलः ॥ २२४ ॥ सर्वैर्वरगुणैर्गण्यो नवे वयसि वर्तते । स त्वया मालया माननीयोऽद्य मदपेक्षया ॥२२५॥ साकेतपतिना किं ते सपत्निदुःखदायिना । इत्याहैतद्वचः सापि 'सोपरोधाऽभ्युपागमत् ॥ २२६ ॥ तदा प्रभृति कन्यायाः समीपगमनादिकम् । उपायेनातिर्थिर्देवी मन्दोदर्या न्यवारयत् ॥ २२७ ॥ धात्री व प्रस्तुतार्थस्य विघातमवदद्विभोः । नृपोऽपि मन्त्रिणं प्राह यदस्माभिरभीप्सितम् ॥ २२८ ॥ तत्त्वया सर्वथा साध्यमिति सोऽप्यभ्युपेत्य तत् । वरस्य लक्षणं शस्तमप्रशस्तं च वर्ण्यते ॥ २२९ ॥ येन तादृग्विधं ग्रन्थं समुत्पाद्य विचक्षणः । स्वयंवरविधानाख्यं विधायारोग्य पुस्तके ॥ २३० ॥ मञ्जूषायां विनिक्षिप्य तदुद्यानवनान्तरे । धरातिरोहितं कृत्वा न्यधादविदितं परैः ॥ २३१ ॥ दिनेषु केषुचिद्यातेषूद्यानावनिशोधने । हलाप्रेणोदुष्टतं मन्त्री मया दृष्टं यदृच्छया ॥ २३२ ॥ पुरातनमिदं शास्त्रमित्यजानन्निव स्वयम् । विस्मितो राजपुत्राणां समाजे तदवाचयत् ॥ २३३ ॥ सम्भावयतु पिङ्गाक्षं कन्यावरकदम्बके । न मालया मृतिस्तस्याः सा तं चेत्समबीभवत् ॥ २३४ ॥ तेनापि न प्रवेष्टव्या सभांहोभीत्रपावता । प्रविष्टोप्यत्र यः पापी ततो निर्धास्यतामिति ॥ २३५ ॥ तदासौ सर्वमाकर्ण्य लज्जया मधुपिङ्गलः । तद्गुणत्वाचतो गत्वा हरिषेणगुरोस्तपः ॥ २३६॥
वरमें जो अन्य प्रशंसनीय गुण होते हैं उन सबका व्याख्यान किया । यह सब जानकर राजकुमारी सुलसा राजा सगर में आसक्त हो गई ।। २२० - २२२ ।। जब सुलसाकी माता अतिथिको इस बातका पता चला तब उसने युक्तिपूर्ण वचनोंसे राजा सगरकी बहुत निन्दा की और कहा कि सुरम्यदेश के पोदनपुर नगरका राजा बाहुबलीके वंशमें होनेवाले राजाओं में श्रेष्ठ तृणपिङ्गल नामका मेरा भाई है । उसकी रानीका नाम सर्वयशा है, उन दोनोंके मधुपिङ्गल नामका पुत्र है जो वरके योग्य समस्त गुणोंसे गणनीय हैं - प्रशंसनीय हैं और नई अवस्था में विद्यमान है । आज तुझे मेरी अपेक्षासे ही उसे वरमाला डालकर सन्मानित करना चाहिये ।। २२३-२२५ ।। सौतका दुःख देनेवाले अयोध्या पति – राजा सगरसे तुझे क्या प्रयोजन है ? माता अतिथिने यह वचन कहे जिन्हें सुलसाने भी उसके
हवश स्वीकृत कर लिया ।। २२५ ।। उसी समय से अतिथि देवीने किसी उपायसे कन्याके समीप मन्दोदरीका आना जाना आदि बिलकुल रोक दिया ।। २२६ ॥ मन्दोदरीने अपने प्रकृत कार्यक रुकावट राजा सगरसे कही और राजा सगरने अपने मन्त्रीसे कहा कि हमारा जो मनोरथ है वह तुम्हें सब प्रकार से सिद्ध करना चाहिये । बुद्धिमान् मन्त्रीने राजाकी बात स्वीकार कर स्वयंवर विधान नामका एक ऐसा ग्रन्थ बनवाया कि जिसमें वरके अच्छे और बुरे लक्षण बताये गये थे । उसने वह ग्रन्थ पुस्तकके रूपमें निवद्धकर एक सन्दूकचीमें रक्खा और वह सन्दूकची उसी नगर सम्बन्धी उद्यानके किसी वनमें जमीनमें छिपाकर रख दी। यह कार्य इतनी सावधानीसे किया कि किसीको इसका पता भी नहीं चला ।। २२७-२३१ ॥ कितने ही दिन बीत जानेपर वनकी पृथिवी खोदते समय उसने हलके अग्रभागसे वह पुस्तक निकाली और कहा कि इच्छानुसार खोदते हुए मुझे यह सन्दूकची मिली है । यह कोई प्राचीन शास्त्र है इस प्रकार कहता हुआ वह आश्चर्य प्रकट करने लगा, मानो कुछ जानता ही नहीं हो। उसने वह पुस्तक राजकुमारोंके समूहमें बचवाई। उसमें लिखा था कि कन्या और वरके समुदायमें जिसकी आँख सफेद और पीली हो, मालाके द्वारा उसका सत्कार नहीं करना चाहिये । अन्यथा कन्याकी मृत्यु हो जाती है या वर मर जाता है । इसलिए पाप डर और लज्जावाले पुरुषको सभामें प्रवेश नहीं करना चाहिये । यदि कोई पापी प्रविष्ट भी हो जाय तो उसे निकाल देना चाहिये || २३२ - २३५ ।। मधुपिङ्गलमें यह सब गुण विद्यमान थे अतः वह यह सब सुन लज्जावश वहाँ से बाहर चला गया और हरिषेण गुरुके पास जाकर उसने तप धारण कर लिया ।
ख०,
१ सापराधा ख० । २ समीपे गमनादिकम् म०, ल० । ३ मञ्जूषायां कुधीः शास्त्रं विनिक्षिप्य वनान्तरे
म० ।
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