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महापुराणे उत्तरपुराणम् महाकालोऽभवत्तत्र देवैरावेष्टितो निजैः । देवलोकमिमं केन प्राप्तोऽहमिति संस्मरन् ॥ २५२ ॥ ज्ञात्वा विभङ्गज्ञानोपयोगेन प्राक्तने भवे । प्रवृत्तमखिलं पापी कोपाविष्कृतचेतसा ॥ २५३ ॥ तस्मिन् मन्त्रिणि भूपे च रूढवैरोऽपि तौ तदा। अनिच्छन् हन्तुमत्युग्रं सुचिकीर्षुरहं तयोः ॥ २५४ ॥ तदुपायसहायांश्च सञ्चिन्त्य समुपस्थितः । नाचिन्तयन् महत्पापमात्मनो धिग्विमूढताम् ॥ २५५॥ इदं प्रकृतमन्नान्यत्तदभिप्रायसाधनम् । द्वीपेऽत्र भरते देशे धवले स्वस्तिकावती ॥ २५६ ॥ पुरं विश्वावसुस्तस्य पालको हरिवंशजः । देव्यस्य श्रीमती नाना वसुरासीत्सुतोऽनयोः ॥ २५७ ॥ तत्रैव ब्राह्मणः पूज्यः सर्वशास्त्रविशारदः। अभूत्क्षीरकदम्बाख्यो विख्यातोऽध्यापकोत्तमः ॥ २५८ ॥ 'समीपे तस्य तत्सूनुः पर्वतोऽन्यश्च नारदः । देशान्तरगतच्छात्रस्तुग्वसुश्च महीपतेः ॥२५९॥ एते त्रयोऽपि विद्यानां पारमापत्स पर्वतः । तेम्वधीविपरीतार्थग्राहीमोहविपाकतः ॥२६॥ शेषौ यथोपदिष्टार्थग्राहिणौ ते त्रयोऽप्यगुः । वनं दर्भादिकं चेतु सोपाध्यायाः कदाचन ॥२६१॥ गुरुः श्रतधरो नाम तत्राचलशिलातले । स्थितो मुनित्रयं तस्मात्कृत्वाष्टाङ्गनिमित्तकम् ॥२६२॥ तत्समाप्तौ स्तुतिं कृत्वा सुस्थितं तन्निरीक्ष्य सः। तन्नःपुण्यपरीक्षार्थ समपृच्छन्मुनीश्वरः ॥२६३॥ पठच्छात्रत्रयस्यास्य नाम किं कस्य किं कुलम् । को भावः का गतिः प्रान्ते भवद्भिः कथ्यतामिति ॥२६॥ तेवकोऽभाषतात्मज्ञः शृण्वित्यस्मत्समीपगः । वसुः क्षितिपतेः सूनुः तीव्ररागादिषितः ॥२६५॥
निदान कर लिया। अन्तमें मरकर वे असुरेन्द्रकी महिष जातिकी सेनाकी पहिली कक्षामें चौंसठ हजार असुरोंका नायक महाकाल नामका असुर हुआ। वहाँ उत्पन्न होते ही उसे अनेक प्रात्मीय देवोंने घेर लिया । मैं इस देव लोकमें किस कारणसे उत्पन्न हुआ हूँ। जब वह इस बातका स्मरण करने लगा तो उसे विभङ्गावधिज्ञानके द्वारा अपने पूर्वभवका सब समाचार याद आ गया। याद आते ही उस पापीका चित्त क्रोधसे भर गया। मन्त्री और राजाके ऊपर उसका वैर जम गया। यद्यपि उन दोनोंपर उसका वैर जमा हुआ था तथापि वह उन्हें जानसे नहीं मारना चाहता था, उसके बदले वह उनसे कोई भयङ्कर पाप करवाना चाहता था ॥ २५०-२५४ ।। वह असुर इसके योग्य उपाय तथा सहायकोंका विचार करता हुआ पृथिवीपर आया परन्तु उसने इस बातका विचार नहीं किया कि इससे मुझे बहुत भारी पापका सञ्चय होता है। प्राचार्य कहते हैं कि ऐसी मूढ़ताके लिए धिक्कार हो॥२५५।। उधर वह अपने कार्यके योग्य उपाय और सहायकोंकी चिन्ता कर रहा था इधर उसके अभिमायको सिद्ध करनेवाली दूसरी घटना घटित हुई जो इस प्रकार है। इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके धवल देशमें एक स्वस्तिकावती नामका नगर है। हरिवंशमें उत्पन्न हुआ राजा विश्वावसु उसका पालन करता था। इसकी स्त्रीका नाम श्रीमती था। उन दोनोंके वसु नामका पुत्र था ।। २५६-२५७ ॥ उसी नगरमें एक क्षीरकदम्ब नामका पूज्य ब्राह्मण रहता था। वह समस्त शास्त्रोंका विद्वान् था और प्रसिद्ध श्रेष्ठ अध्यापक था ॥ २५८ ॥ उसके पास उसका लड़का पर्वत, दूसरे देशसे आया हुआ नारद और राजाका पुत्र वसु ये तीन छात्र एक साथ पढ़ते थे ।। २५६ ॥ ये तीनों ही छात्र विद्याओंके पारको प्राप्त हुए थे, परन्तु उन तीनोंमें पर्वत निर्बुद्धि था, वह मोहके उदयसे सदा विपरीत अर्थ ग्रहण करता था। बाकी दो छात्र, पदार्थका स्वरूप जैसा गुरु बताते थे वैसा ही ग्रहण करते थे। किसी एक दिन ये तीनों अपने गुरुके साथ कुशा आदि लानेके लिए वनमें गये थे ।। २६०-२६१ ॥ वहाँ एक पर्वतकी शिलापर श्रुतधर नामके गुरु विराजमान थे । अन्य तीन मुनि उन श्रुतधर गुरुसे अष्टाङ्गनिमित्तज्ञानका अध्ययन कर रहे थे। जब अष्टाङ्गनिमित्त ज्ञानका अध्ययन पूर्ण हो गया तब वे तीनों मुनि उन गुरुकी स्तुति कर बैठ गये। उन्हें बैठा देखकर श्रुतधर मुनिराजने उनकी चतुराईकी परीक्षा करनेके लिए पूछा कि 'जो ये तीन छात्र बैठे हैं इनमें किसका क्या नाम है? क्या कुल है? क्या अभिप्राय है ? और अन्त में किसकी क्या गति होगी? यह आप लोग कहें ।। २६२-२६४॥ उन तीन मुनियोंमें एक आत्मज्ञानी मुनि थे। वे कहने लगे कि सुनिये, यह जो राजाका पुत्र वसु
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