________________
पश्चषष्टितम पर्व
२२७
अभिज्ञानमिदं भावि चक्रित्वस्यास्य निश्चितम् । तस्मान्मा स्म भयं यासीरिति तामिति दुःखिताम् १२३ सुबन्ध्वाख्यो भृशं स्वास्थ्यमनैषीत्करुणात्मकः । ततस्तदग्रजोऽभेत्य तां नीत्वा 'गृहमात्मनः ॥ १२ ॥ समुद्भूतोऽयमाश्लिष्य मेदिनीमिति तस्य सः। सुभौम इति सम्प्रीत्या चक्रे नाम कृतोत्सवः ॥१२५॥ तत्र शास्त्राणि सर्वाणि सप्रयोगाणि सन्ततम् । सोपदेशं समभ्यस्यन् वर्द्धते स्म स गोपितः ॥ १२६ ॥ अथ तौ रेणुकीपुत्रौ प्रवृद्धोग्रपराक्रमौ । त्रिः ससकृत्वो निर्मूलमापाद्य क्षत्रियान्वयम् ॥ १२७ ॥ स्वहस्ताखिलभूपालशिरांसि स्थापनेच्छया । शिलास्तम्भेषु सङ्गह्य वद्धवैरौ गुरोर्वधात् ॥ १२८ ॥ सार्वभौमीं श्रियं सम्यक सम्भूयानुबभूवतुः । निमिराकुशलो नान्ना कदाचित्स निमित्तवित् ॥ १२९ ॥ भवतः शत्रुरुत्पनः प्रयनोऽत्र विधीयताम् । कः प्रत्ययोऽस्य चेद्वच्मि 3विध्वस्ताखिलभूभुजाम् ॥१३०॥ दन्ता यस्याशनं भूत्वा परिणस्यत्यसौ रिपुः । इतीन्द्ररामं राजानं परश्वीशमबूबुधत् ।। १३१ ॥ श्रुत्वा यथावौमित्तिकोक्तं चेतसि धारयन् । कृत्वा परशुरामोऽपि दानशालां सुभोजनाम् ॥ १३२ ॥ तत्परीक्षार्थमायान्तु येऽत्र 'विश्वणनार्थिनः । इत्याघोषयति स्मैतत् श्रुत्वा तेऽपि समागमन् ॥ १३३ ॥ तेषां पात्रस्थतइन्तान् सम्प्रदर्श्य परीक्षितुम् । तान् भोजयति भूपाले प्रत्यहं स्वनियोगिभिः १३४ ॥ पितुर्मरणवृत्चान्तं स्वमातुरवबुद्धवान् । स्वचक्रेशित्वसम्प्राप्तिकालायानं च तत्त्वतः॥ १३५॥ 'सुसिडमुनिनिर्दिष्टसंवृत्तारमस्वरूपक: । परिव्राजकवेषेण स्वरहस्यार्थवेदिना ॥१३६ ॥ राजपुत्रसमूहेन सुभौमोऽध्यागमत्पुरम् । सभाग्यांश्चोदयत्येव काले कल्याणकृद्विधिः ॥ १३७ ।।
स्थित गरम गरम पुओंको निकालकर खा लेगा । इसलिए तू किसी प्रकारका भय मत कर। इसप्रकार दयासे परिपूर्ण सुबन्धु मुनिने दुःखिनी रानी चित्रमतीको अत्यन्त सुखी किया।
तदनन्तर बड़ा भाई शाण्डिल्य नामका तापस आकर उस चित्रमतीको अपने घर ले गया। यह बालक पृथिवीको छूकर उत्पन्न हुआ था इसलिये शाण्डिल्यने बड़ा भारी उत्सव कर प्रेमके साथ उसका सुभौम नाम रक्खा ॥ १२०-१२५ ॥ वहाँ पर वह उपदेशके अनुसार निरन्तर प्रयोग सहित समस्त शास्त्रोंका अभ्यास करता हुआ गुप्तरूपसे बढ़ने लगा ॥१२६॥ इधर जिनका उग्र पराक्रम बढ़ रहा है ऐसे रेणुकीके दोनों पुत्रोंने इक्कीस वार क्षत्रिय वंशको निमूल नष्ट किया ॥१२७॥ पिताके मारे जानेसे जिन्होंने वैर बाँध लिया है ऐसे उन दोनों भाइयोंने अपने हाथसे मारे हुए समस्त राजाओंके शिरोंको एकत्र रखनेकी इच्छासे पत्थरके खम्भोंमें संगृहीतकर रक्खा था ॥ १२८ ।। इस तरह दोनों भाई मिलकर समस्त पृथिवीकी राज्यलक्ष्मीका अच्छी तरह उपभोग करते थे। किसी एक दिन निमित्तकुशल नामके निमित्तज्ञानीने फरशाके स्वामी राजा इन्द्ररामसे कहा कि आपका शत्रु उत्पन्न हो गया है इसका प्रतिकार कीजिये । इसका विश्वास कैसे
आप यह जानना चाहते हैं तो मैं कहता हूं। मारे हुए राजाओंके जो दांत आपने इकट्ठे किये हैं वे जिसके लिए भोजन रूप परिणत हो जायेंगे वही तुम्हारा शत्रु होगा॥ १२६-१३१ ॥ निमित्त ज्ञानीका कहा हुआ सुनकर परशुरामने उसका चित्तमें विचार किया और उत्तम भोजन करानेवाली दानशाला खुलवाई ॥ १३२ ॥ साथमें यह घोषणा करा दी कि जो भोजनाभिलाषी यहाँ श्रावें उन्हें पात्रमें रक्खे हुए दाँत दिखलाकर भोजन कराया जावे । इस प्रकार शत्रुकी परीक्षाके लिए वह प्रतिदिन अपने नियोगियों-नौकरोंके द्वारा अनेक पुरुषोंको भोजन कराने लगा ॥१३३-१३४।। इधर सुभौमने अपनी मातासे अपने पिताके मरनेका समाचार जान लिया, वास्तवमें उसका चक्रवर्तीपना प्राप्त होनेका समय आ चुका था, अतिशय निमित्तज्ञानी सुबन्धु मुनिके कहे अनुसार उसे अपने गुप्त रहनेका भी सब समाचार विदित हो गया अतः वह परिव्राजकका वेष रखकर अपने रहस्यको समझनेवाले राजपुत्रोंके समूहके साथ अयोध्या नगरकी ओर चल पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि कल्याणकारी दैव भाग्यशाली पुरुषोंको समय पर प्रेरणा दे ही देता है ॥ १३५-१३७ ।। उस
१ गेहमात्मनः म०, ल०। २ क्षत्रियान्वहम् ल०। ३ त्वद्ध्वस्ताखिल-ख०, ग०। त्वद्धताखिलस०1४ भोजनार्थिनः । ५ सुबन्धुमुनि ग०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org