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महापुराणे उत्तरपुराणम् इति स्वकुलयोग्यायादवराज्यमहाभरः । गत्वा गणेशमभ्यय॑ वनाद्रौ नवसंयती ॥१३॥ मया कृतो महान् दोषः तं क्षमेथां युवामिति । निगदसावयोलो कद्वितीयैकगुरुर्भवान् ॥१३८ । संयमोऽयं त्वयैवापि ताभ्यां सम्प्राप्य संस्तवम् । बहुभिर्भूभुजैः सार्धं त्यक्तसङ्गः स संयमम् ॥१३॥ प्राप्य क्रमेण ध्वस्तारि_तिकर्मविघातकृत् । केवलावगमज्योतिर्लोकाग्रे व्ययुतराराम् ॥१४॥ तौ समुस्कृष्टचारित्रौ द्वौ खग पुरबाह्यगौ । आतापयोगमादाय तस्थतुस्त्यक्तविग्रहौ ॥ १४ ॥ तत्पुराधिपसोमप्रभादयस्य सुदर्शना । सीता च देख्यौ तत्सूनुः सुप्रभः सुप्रभाङ्गत् ॥ १४२॥ पुरुषोत्तमनामा च गुणैश्व पुरुषोत्तमः । मधुसूदनमुच्छिद्य कृतदिग्जयपूर्वकम् ॥ १४३॥ नृखेचरसुराधीशप्रवद्धितमहोदयम् । प्रविशन्तं प्रभावन्तं नगरं पुरुषोतमम् ॥ १४४ ॥ चन्द्रचूलमुनिष्टा निदानमकृताज्ञकः । जीवनावसितौ सम्यगाराध्योभी चतुर्विधम् ॥ १४५ ॥ सनरकुमारकल्पस्य विमाने कनकप्रभे । विजयः स्वर्णचूलेऽन्यो मणिचूलो मणिप्रभे ॥ ४६॥ जातवन्तौ तदुत्कृष्टसागरोपमितायुषौ । सुचिरं भुकसम्भोगौ ततश्च्युवेह भारते ॥ १७ ॥ वाराणसीपुराधीशो राज्ञो दशरथश्रुतेः । सुतः सुवालासंज्ञायां शुभस्वप्नपुरस्सरम् ॥ १४८ ॥ कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां फाल्गुने मास्यजायत । मघायां हलभूनावी चूलान्तकनकामरः ॥१९॥ प्रयोदशसहस्राब्दो रामनामानसाखिलः । तत एव महीभर्तुः कैकेय्यामभवत्पुरः ॥ १५ ॥ सरःसूर्येन्दुकलमक्षेत्रसिंहान् महाफलान् । स्वमान् संदर्य माघस्य शुक्लपक्षादिमे दिने ॥ १५॥
कारण हैं। ऐसा विचार कर उसने अपने कुलके योग्य किसी पुत्रको राज्य का महान् भार सौंप दिया
और वनगिरि नामक पर्वत पर जाकर गणधर भगवानको पूजा की। वहींपर नवदीक्षित राजकुमार तथा मंत्रि-पुत्रको देखकर उसने कहा कि मैंने जो बड़ा भारी अपराध किया है उसे आप दोनों क्षमा कीजिये । राजाके वचन सुनकर नवदीक्षित मुनियोंने कहा कि आप ही हमारे दोनों लोंकोंके गुरु हैं, यह संयम आपने ही प्रदान कराया है। इस प्रकार उन दोनोंसे प्रशंसा पाकर राजाने सब परिग्रहका त्याग कर अनेक राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया ॥ १३६-१३६ ।। क्रम-क्रमसे मोह कमका विध्वंसकर अवशिष्ट घातिया कर्मोंका नाश किया और केवलज्ञान रूपी ज्योतिको प्राप्तकर वे लोकके अग्रभागमें देदीप्यमान होने लगे ॥१४०॥
___ इधर उत्कृष्ट चारित्रका पालन करते हुए वे दोनों ही कुमार आतापन योग लेकर तथा शरीरसे ममत्व छोड़ कर खड्गपुर नामक नगरके बाहर स्थित थे ॥१४१ ।। उस समय खङ्गपुर नगरके राजाका नाम सोमप्रभ था। उसके सुदर्शना और सीता नामकी दो स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंके उत्तम कान्तिवाले शरीरको धारण करने वाला सुप्रभ और गुणोंके द्वारा पुरुषोंमें श्रेष्ठ पुरुषोत्तम इस प्रकार दो पुत्र थे। इनमें पुरुषोत्तम नारायण था वह दिग्विजयके द्वारा मधुसूदन नामक प्रति नारायण को नष्ट कर नगर में प्रवेश कर रहा था। मनुष्य विद्याधर और देवेन्द्र उसके ऐश्वर्यको बढ़ा रहे थे, उसका शरीर भी प्रभापूर्ण था ।। १४१-१४४ ॥ नगरमें प्रवेश करते देख अज्ञानी चन्द्रचूल मुनि (राजकुमारका जीव ) निदान कर बैठा। अन्तमें जीवन समाप्त होनेपर दोनों मुनियोंने चार प्रकारकी आराधना की। उनमेंसे एक तो सनत्कुमार स्वर्गके कनकप्रभ नामक विमानमें विजय नामक देव और दूसरा मणिप्रभ विमानमें मणिचूल नामका देव हुआ। वहाँ उनकी उत्कृष्ट आयु एक सागर प्रमाण थी। चिर कालतक वहाँ के सुख भोग कर वे वहाँसे च्युत हुए।। १४५-१४७॥
अथानन्तर इसी भरतक्षेत्रके बनारस नगरमें राजा दशरथ राज्य करते थे। उनकी सुबाला नामकी रानी थी। उसने शुभ स्वप्न देखे और उसीके गर्भसे फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशीके दिन मघा नक्षत्र में सुवर्णचूल नामका देव जो कि मन्त्रीके पुत्रका जीव था, होनहार बलभद्र हुआ। उसकी तेरह हजार वर्षकी आयु थी, राम नाम था, और उसने सब लोगोंको नम्रीभूत कर रक्खा था। उन्हीं राजा दशरथकी एक दूसरी रानी कैकेयी थी। उसने सरोवर, सूर्य, चन्द्रमा, धानका खेत और
१ भूभुजाम् ख० । १ चतुर्विधाम् क०, प० ।
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