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सप्तषष्टितम पर्व
२५५ विशाखः स चक्राको मणिचूलोऽमृताशनः । षड्गुणद्विसहस्त्राब्दजीवितो लक्ष्मणालयः ॥ १५२ ॥ तौ पञ्चदशचापोचौ' द्वात्रिंशल्लक्षणान्वितौ। आदिसंहननी संस्थान चाभूदादिमं तयोः ॥१५३॥ अमेयवीयों हंसाशनीलोत्पलसमत्विषौ। तयोः सपञ्चपञ्चाशत्-पञ्चाशद्वर्षसम्मिते ॥ १५ ॥ कुमारकाले निःक्रान्ते नितान्तपरमोदये। भारतेऽस्मिन्मयोध्यायां उभरतादिमहीशितुः ॥ १५५ ॥ गतेष्विक्ष्वाकुमुख्येषु सख्यातीतेष्वनन्तरम् । हरिषेणमहाराजे दशमे चक्रवर्तिनि ॥ १५६ ॥ सर्वार्थसिद्धावुत्पन्ने संवत्सरसहस्रके। काले गतवति प्राभूत् सगराख्यो महीपतिः॥ १५७ ॥ निःखण्डमण्डलवण्डः सुलसायाः स्वयंवरे । मधुपिङ्गलनामानं कुमारवरमागतम् ॥ १५८ ॥ दृष्यलक्ष्मायमित्युक्त्वा निरास्थ अपमध्यगम् । सगरे बद्धवैरः सन् निःक्रम्य मधुपिङ्गलः ॥ १५९ ॥ सलज्जः संयमी भूत्वा महाकालासुरोऽभवत् । सोऽसुरः सगराधीशर्वशनिर्मूलनोद्यतः ॥ १६०॥ द्विजवेष समादाय सम्प्राप्य सगरावयम् । अथर्ववेदविहितं प्राणिहिंसापरायणम् ॥ ११॥ कुरु यागं श्रियो वृद्धथै शत्रुविच्छेदनेच्छया। इति तं दुर्मतिं भूपं पापाभीरुय॑मोहयत् ॥१६२॥ अनुष्ठाय तथा सोऽपि प्राविशत्पापिनां क्षितिम् । निर्मूलं कुलमप्यस्य नष्टं दुर्मार्गवर्तनात् ॥ ११३॥ श्रुत्वा तत्सात्मजो रामपितास्मार्क क्रमागतम् । साकेतपुरमित्येत्य तदध्यास्यान्वपालयत् ॥ १६॥
तत्रास्य देव्यां कस्याञ्चिदभवद्भरताहयः । शत्रुध्नश्चान्यदप्येक दशाननवधायशः ॥ १६५ ॥ सिंह ये पाँच महाफल देनेवाले स्वप्न देखे और उसके गर्भसे माघ शुक्ला प्रतिपदाके दिन विशाखा नक्षत्र में मणिचूल नामका देव जो कि मन्त्रीके पुत्रका जीव था उत्पन्न हुआ। उसके शरीरपर चक्रका चिह्न था, बारह हजार वर्षकी उसकी आयु थी और लक्ष्मण उसका नाम था ।। १४०-१५२॥ वे दोनों ही भाई पन्द्रह धनुष ऊंचे थे, बत्तीस लक्षणोंसे सहित थे, वनवृषभनाराचसंहननके धारक . थे और उन दोनोंके समचतुरस्त्रसंस्थान नामका पहला संस्थान था ।। १५३ ।। वे दोनों ही अपरिमित शक्तिवाले थे, उनमेंसे रामका शरीर हंसके अंश अर्थात् पंखके समान सफेद था और लक्ष्मण का शरीर नील कमलके समान नील कान्तिवाला था! जब रामका पचपन और लक्ष्मण वर्ष प्रमाण, अत्यन्त श्रेष्ठ ऐश्वर्यसे भरा हुआ कुमारकाल व्यतीत हो गया तब इसी भरतक्षेत्र की अयोध्यानगरीमें एक सगर नामक राजा हुमा था। वह सगर तब हुआ था जब कि प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजके बाद इक्ष्वाकुवंशक शिरोमणि असंख्यात राजा हो चुके थे और उनके बाद जब हरिषेण महाराज नामक दशा चक्रवती मरकर सवोर्थसिद्धिमें उत्पन्न हो गया था तथा उसके जब एक हजार वर्ष प्रमाण काल व्यतीत हो चुका था। इस प्रकार काल व्यतीत हो चुकने पर सगर राजा हुआ था। वह अखण्ड राष्ट्रका स्वामी था, तथा बड़ा ही क्रोधी था। एकबार उसने सुलसाके स्वयंवरमें आये हुए एवं राजाओंके बीच में बैठे हुए मधुपिङ्गल नामके श्रेष्ठ राजकुमारको 'यह दुष्ट लक्षणोंसे युक्त है। ऐसा कहकर सभाभूमिसे निकाल दिया। राजा मधुपिङ्गल सगर राजाके साथ वैर बांधकर लजाता हुआ स्वयंवर मण्डपसे बाहर निकल पड़ा। अन्तमें संयम धारणकर वह महाकाल नामका असुर हुआ । वह असुर राजा सगरके वंशको निर्मूल करनेमें तत्पर था ।। १५४१६०॥ वह ब्राह्मणका वेष रखकर राजा सगरके पास पहचा और कहने लगा कि तू लक्ष्मीकी वृद्धिके लिए, शत्रुओंका उच्छेद करनेके लिए अथर्ववेदमें कहा हुआ प्राणियोंकी हिंसा करने वाला यज्ञ कर । इस प्रकार पापसे नहीं डरने वाले उस महाकाल नामक व्यन्तरने उस दुर्बुद्धि राजाको मोहित कर दिया ॥ १६१-१६२ ॥ वह राजा भी उसके कहे अनुसार यज्ञ करके पापियोंकी भूमि अर्थात नरकमें प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार कुमार्गमें प्रवृत्ति करनेसे इस राजाका सबका सब कुल नष्ट हो गया। इधर राजा दशरथने जब यह समाचार सुना तब उन्होंने सोचा कि अयोध्यानगर तो हमारी वंशपरम्परासे चला आया है। ऐसा विचारकर वे अपने पुत्रोंके साथ अयोध्या नगरमें गये और वहीं रह कर उसका पालन करने लगे। १६३-१६४॥ वहीं इनकी किसी अन्य रानीसे भरत
१ चापाङ्गो क०, प० । २ नितान्तपरमोदयौ स.। नितान्तपरमोदयम् न.।। भरतादिमहीभुणि ख० । भारतादिमहीशितुः ल 14 अपूर्व म., ल० । ६ भृतं ल।
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