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सप्तषष्टितम पर्व
२५३
अनाहतस्वसौख्यस्य कस्यचिद्वनवासिनः । स्वकार्येष्वतितीवस्य जनस्यात्युग्रचेष्टितुः॥ १२३॥ तावपिंती मया सोऽपि तावाह कृतदोषयोः । भवतोर्न सुखं स्मार्य दुःखं भोग्यं सुदुष्करम् ॥ १२४ ॥ स्मच्या देवता चिरो परलोकनिमित्ततः । इत्येतत्तौ च भद्र त्वं मा कृथाः कष्टदण्डनम् ॥ १२५ ॥ आवाभ्यामावयोः कार्यमित्यात्मकरभाविताम् । वेदनां तीव्रमापाद्य परलोकोन्मुखावुभौ ॥ १२६ ॥ भभूतां तद्विलोक्याहमभिप्रेतार्थनिष्ठितम् । सुविधायागतो देव सिद्धं भवदुदीरितम् ॥ १२७ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा महादुःखाकुलो मनाक् । निवातस्तिमितक्ष्माजसमानो निश्चल स्थितः ॥१२८॥ आत्मना मन्त्रिभिर्बन्धुर्जनैबालोच्य निश्चितम् । कार्य हितमनुष्ठेयं तत्प्रानानुष्ठितं त्वया ॥ १२९॥ करजालमतिक्रान्तमिव सर्पिमहीरहे । प्रसूनमिव संशुष्क कार्य कालातिपांतितम् ॥ १३ ॥ तत्र शोको न कर्तव्यो वृथेति सचिवोदितम् । श्रस्वा तद्वचनं वृहि तर्के तख़ुक कथम् ॥ १३१॥ इत्यप्राक्षीततोऽस्याभिप्रायवित्सचिवोऽवदत् । यतयो वनगिर्यद्रिगुहागहनवासिनः ॥१३२॥ धैर्यासिधारानिभिन्नकषायविषयद्विषः । स्थूलसूक्ष्मासुभृद्रक्षानितान्तोचतवृत्तयः ॥ १३३ ॥ भिया भियेव कोपेन कोपेनेवानिताशयाः । असंयतेषु भोगोपभोगेष्विव निरांदराः ॥ १३ ॥ तेभ्यस्तौ धर्मसदावं श्रुत्वा निविंद्य दीक्षितौ । इति विस्पष्टतद्वाक्यात्परितुष्टो महीपतिः ॥ ३५॥ लोकद्वयहितो नाम्यस्त्वमेवेत्यभिनन्य तम् । दुष्पुत्र इव भोगोऽयं पापापलापकारणम् ॥ १३६॥
-कहने लगा कि कोई एक वनवासी गुहामें रहता था, वह सिंहके समान निर्भय था, उसने अपने सुखोंका अनादर कर दिया था, वह अपने कार्यों में अत्यन्त तीव्र था और उग्र चेष्टाका धारक था । मैंने वे दोनों ही कुमार उसके लिए सौंप दिये। उस गुहावासीने भी उनसे कहा कि आप दोनोंने बहुत भारी दोष किया है अतः अब आप लोग सुखका स्मरण न करें, अब तो आपको कठिन दुःख भोगना पड़ेगा। परलोकके निमित्त हृदयमें इष्ट देवताका स्मरण करना चाहिये। यह सुनकर उन दोनोंने मुझसे कहा कि 'हे भद्र ! आप हम दोनोंके लिए कष्टकर दण्ड न दीजिये, यह कार्य तो हम दोनों स्वयं कर रहे हैं अर्थात् स्वयं ही दण्ड लेनेके लिए तत्पर हैं। यह कह वे दोनों अपने हाथसे उत्पादित तीव्र वेदना प्राप्त कर परलोकके लिए तैयार हो गये। यह देख मैं इष्ट अर्थकी पूर्ति कर वापिस चला आया हूं। हे राजन् ! इस तरह आपका अभिप्राय सिद्ध हो गया ।। १२२-१२७ ॥ मन्त्रीके वचन सुनकर राजा महादुःखसे व्यग्र हो गया और कुछ देर तक हवारहित स्थानमें निष्पन्द खड़े हुए वृक्षके समान निश्चल बैठा रहा ॥ १२८ ॥ तदनन्तर राजाने अपने आप, मंत्रियों तथा बन्धजनोंके साथ निश्चय किया और तत्पश्चात मंत्रीसे कहा कि तुम्हें सदा हितकारी कार्य करना चाहिये, आज जो तुमने कार्य किया है वह पहले कभी भी तुम्हारे द्वारा नहीं किया गया ।। १२६ ।। मन्त्रीने कहा कि जिस प्रकार जो किरणोंका समूह अतीत हो चुकता है और जो फूल सांप वाले वृक्षपर लगा-लगा सूख जाता है, उसके विषयमें शोक करना उचित नहीं होता है उसी प्रकार यह
भी अब कालातिपाती-अतीत हो चुका है अतः अब आपको इसके विषयमें शोक नहीं करना चाहिये । मंत्रीके वचन सुनकर राजाने पूछा कि यथार्थ बात क्या है ? तदनन्तर राजाका अभिप्राय जानने वाला मन्त्री बोला कि वनगिरि पर्वतकी गुफाओं और सघन वनोंमें बहुतसे यति-मुनि रहते हैं उन्होंने अपने धैर्य रूपी तलवारकी धारासे कषाय और विषयरूपी शत्रुओंको जीत लिया है, क्या स्थूल क्या सूक्ष्म-सभी जीवोंकी रक्षा करनेमें वे निरन्तर तत्पर रहते हैं। उनके हृद भय मानो भयसे ही भाग गया है और क्रोध मानो क्रोधके कारण ही उनके पास नहीं आता है। वे भोग-उपभोगके पदार्थोमें असंयमियोंके समान सदा निरादर करते रहते हैं। वे दोनों ही कुमार उन यतियोंसे धर्मका सद्भाव सुनकर विरक्त हो दीक्षित हो गये हैं। इस प्रकार मंत्रीके स्पष्ट वचन सुनकर राजा बहुत ही संतुष्ट हुश्रा ।। १३०-१३५ ।। 'दोनों लोकोंका हित करने वाला तू ही है। इस प्रकार मन्त्रीकी प्रशंसा कर राजाने विचार किया कि ये भोग कुपुत्रके समान पाप और निन्दाके
१ तबाह ल.। २ निष्ठितौ ल० । ३ सुविधाय यातो ल०।४ पापालापापकारणम् क., प०।
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