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सप्तषष्टितम पर्व तस्याः स्वानुचरेणोक्ता श्रुत्वा रूपादिसम्पदम् । कुमारे तां स्वसाकर्तुं सह मित्रे समुद्यते ॥ १५ ॥ वणिक्सकसमाकोशध्वनिमाकर्ण्य भूपतिः। स्वतनूजदुराचारदारूवत्कोपपावकः ॥ ९६ ॥ पुररक्षकमाहूय दुरात्मानं कुमारकम् । लोकान्तरातिथिं सद्यो विधेहीति समादिशन् ॥ १७ ॥ तदैव सोऽपि राजाज्ञाचोदितस्तुमुलाहये। जीवग्राहं गृहीत्वैनमानयनिकटं विभोः॥ ९८ ॥ तदालोक्य किमित्येष पापीहानीयते द्रतम् । निशातशूलमारोप्य श्मशाने स्थाप्यतामिति ॥ १९ ॥ राज्ञोक्ते प्रस्थितो हन्तुं कुमारं पुररक्षकः । न्यायानुवर्तिनां युक्तं न हि स्नेहानुवर्तनम् ॥१०॥ तदामात्योत्तमः पौरान्पुरस्कृत्य महीपतिम् । व्यजिज्ञपदिति व्यक्तमुक्षिप्तकरकुड्मलः ॥ ११ ॥ कृत्याकृत्यविवेकोऽस्य न बाल्यादेव विद्यते । प्रमादोऽस्माकमेवायं विनेयाः पितृभिः सुताः॥१.२॥ न दान्तोऽयं नृभिर्दन्ती शैशवे चेद् यथोचितम् । प्राप्तश्वर्यो न किं कुर्यादसौ दर्पग्रहाहितः ॥१.३॥ म बुद्धिमान् न दुर्बुद्धिर्न वधं दण्डमर्हति । आहार्यबुद्धिरेषोऽतः शिक्षणीयोऽधुनाप्यलम् ॥ १.४॥ न कोपोऽस्मिस्तवास्स्येव म्यायमार्गे निनीषया । निगृहास्येक एवार्य राज्यसन्ततिसंवृतौ ॥१०५॥ अन्यत्संधिसतोऽत्रान्यत्प्रच्युतं तदिति श्रुतिः। सा तवाय समायाति सन्तानोच्छेदकारिणः ॥१०॥ एतत्पूत्कारतो ज्येष्ठ तनूजमवधीन्नृपः। इत्यवाच्यभयग्रस्ताः पौराते पुरःस्थिताः १०७॥
तत्क्षमस्वापरार्ध मे महीशप्रार्थितोऽस्यमुम् । एतन्मन्त्रिवचः श्रुत्वा विरूपकमुदीरितम् ॥१८॥ पुत्री दे रहा था। उसी समय महापापके करने वाले किसी अनुचरने राजकुमार चन्द्रचूलसे कुबेरदक रूप आदिकी प्रशंसा की। उसे सुनकर वह अपने मित्र विजयके साथ उस कन्याको बलपूर्वक अपने आधीन करनेके लिए तत्पर हो गया ॥६३-१५॥ यह देख, वैश्योंका समूह चिल्लाता हुआ महाराजके पास गया। उसके रोने-चिल्लानेका शब्द सुनते ही महाराजकी क्रोधाग्नि अपने पुत्रके दुराचाररूपी ईन्धनसे अत्यन्त भड़क उठी। उन्होंने नगरके रक्षकको बुलाकर आज्ञा दी कि इस दुराचारी कुमारको शीघ्र ही लोकान्तरका अतिथि बना दो-मार डालो ॥६६-६७॥ उसी समय राजाज्ञासे प्रेरित हुआ नगररक्षक बहुत भारी भीड़मेंसे इस राजकुमारको जीवित पकड़कर महाराजके समीप ले आया ॥८॥ यह देख राजाने विचार किया कि इस पापीको शीघ्र ही किसप्रकार मारा जाय? कुछ देर तक विचार करनेके बाद उन्होंने नगररक्षकको आदेश दिया कि इसे श्मशानमें ले जाकर पेनी शूलीपर चढ़ा दो ॥६६॥ राजाके कहते ही नगररक्षक कुमारको मारनेके लिए चल दिया। सो ठीक ही है क्योंकि न्यायके अनुसार चलने वाले पुरुषोंको स्नेहका अनुसरण करना उचित नहीं है ।। १०० ।। इधर यह हाल देख प्रधान मन्त्री नगरवासियोंको आगे कर राजाके समीप गया और हस्तरूपी कमल ऊपर उठाकर इस प्रकार निवेदन करने लगा ॥ १०१ ॥ हे देव ! इसे कार्य और अकार्यका विवेक बाल्य-अवस्थासे ही नहीं है, यह हमलोगोंका ही प्रमाद है क्योंकि मातापिताके द्वारा ही बालक सुशिक्षित और सदाचारी बनाये जाते हैं । १०२ ॥ यदि हाथीको बाल्यावस्थामें यथायोग्य रीतिसे वशमें नहीं किया जाता तो फिर वह मनुष्योंके द्वारा वशमें नहीं किया जा सकता; यही हाल बालकोंका है। यदि ये बाल्यावस्थामें वश नहीं किये जाते हैं तो वे आगे चलकर ऐश्वर्य प्राप्त होनेपर अभिमानरूपी ग्रहसे आक्रान्त हो क्या कर गुजरेंगे इसका ठिकाना नहीं ॥ १०३ ॥ यह कुमार न तो बुद्धिमान् है और न दुर्बुद्धि ही है इसलिए प्राणदण्ड देनेके योग्य नहीं है। अभी यह आहार्य बुद्धि है-इसकी बुद्धि बदली जा सकती है अतः इस समय इसे अच्छी तरह शिक्षा देना चाहिये ॥ १०४ ॥ कुमार पर आपका कोप तो है नहीं, आप तो न्यायमार्गपर ले जानेके लिए ही इसे दण्ड देना चाहते हैं परन्तु आपको इस बातका भी ध्यान रखना चाहिये कि राज्यकी संतति धारण करनेके लिए यह एक ही है-आपका यही एक मात्र पुत्र है॥१०५॥ यदि आप इस एक ही संतानको नष्ट कर देंगे तो 'कुछ करना चाहते थे और कुछ हो गया' यह लोकोचि आज ही आपके शिर आ पड़ेगी ।। १०६ ।। दूसरी बात यह है कि इन लोगोंके रोनेमिनेसे महाराजने अपने बड़े पुत्रको मार डाला इस निन्दाके भयसे प्रस्त हुए ये अभी नगरवासी आपके
१-पतिनम् ल । २ विवेकश्व ख० ।। तथास्येव म., ल । ४ संधृतौ ख०, ग० । संततौ पः।
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