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सप्तषष्टितमं पर्व
राज्यभार समारोप्य सुते भूपतिभिः समम् । बहुभिः संयमं प्रापत्प्रपित्सुः परमं पदम् ॥ ६८ ॥ हरिषेणोऽप्युपादाय श्रावकव्रतमुत्तमम् । मुक्तेद्वितीयसोपानमिति मत्वाऽविशत्पुरम् ॥ ६९ ॥ तपस्यतश्चिरं घोरं पद्मनाभमहामुनेः । दीक्षावनेऽभूत्कैवल्यं प्रतिमायोगधारिणः ॥ ७० ॥ आसंश्चक्रातपत्रासिदण्डरत्नानि तदिने । हरिषेण महीशस्य तदैवायुधवेश्मनि ॥ ७१ ॥ श्रीगृहे काकिणीचर्म मणिरत्नानि चाभवन् । युगपत्सुष्टचित्तोऽसौ नत्वा तद्द्वयशंसिने ॥ ७२ ॥ दत्वा तुष्टिधनं प्रायाज्जिनपूजाविधित्सया । पूजयित्वाभिवन्धेनं जिनं प्रति निवस्य सः ॥ ७३ ॥ पुरं प्रविश्य चक्रस्य कृतपूजाविधिदिशः । जेतुं समुद्यतस्तस्य तदानीमभवत्पुरे ॥ ७४ ॥ पुरोहितो गृहपतिः स्थपतिश्च चमूपतिः । हस्त्यश्वकन्यारत्नानि खगादेरानयन्खगाः ॥ ७५ ॥ नदीमुखेषु सम्भूतान वापि महतो निधीन् । अनिन्यिरे स्वयं भक्त्या गणबद्धाभिधाः सुराः ॥ ७६ ॥ स तैः श्लाध्यषडङ्गेन बलेन प्रस्थितो दिशः । जित्वा तत्साररणानि स्वीकृत्य विजिताखिलः ॥ ७७ ॥ स्वराजधान्यां संसेव्यः सुरभूपखगाधिपैः । दशाङ्गभोगान्निर्व्यमं निविंशन् सुचिरं स्थितः ॥ ७८ ॥ कदाचित्काचिके माले नन्दीश्वरदिनेष्वयम् । कृत्वाऽष्टसु महापूजां सोपवासोऽन्तिमे दिने ॥ ७९ ॥ हर्ग्यपृष्ठे सभामध्ये शारदेन्दुरिवाम्बरे । भासमानः समालोक्य राहुप्रासीकृतं विधुम् ॥ ८० ॥ धिगस्तु संसृतेर्भावं ज्योतिर्लोकैकनायकः । प्रस्तस्तारापतिः कष्टं पूर्णः स्वैर्वेष्टितोऽप्ययम् ॥ ८१ ॥
की वन्दना कर उन्होंने उनसे संसार और मोक्षका स्वरूप सुना जिससे वे राजसी वृत्तिको छोड़ कर शान्त वृत्ति स्थित होनेके लिए उत्सुक हो गये ।। ६६-६७ ।। परमपद मोक्ष प्राप्त करनेके इच्छुक राजा पद्मनाभने राज्यका भार पुत्रके लिए सौंपा और बहुतसे राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया ॥ ६८ ॥ 'यह मोक्ष महल की दूसरी सीढ़ी है' ऐसा मानकर हरिषेणने भी श्रावकके उत्तम व्रत धारण कर नगर में प्रवेश किया ।। ६६ ।। इधर चिर कालतक घोर तपश्चरण करते हुए पद्मनाभ मुनिराजने दीक्षावनमें ही प्रतिमायोग धारण किया और वहीं उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥ ७० ॥ उसी दिन राजा हरिषेणकी आयुधशालामें चक्र, छत्र, खड्न, और दण्ड ये चार रन प्रकट हुए तथा श्रीगृह में काकिणी, चर्म, और मणि ये तीन प्रकट हुए। समाचार देने वालोंने दोनों समाचार एक साथ सुनाये इसलिए हरिषेणका चित्त बहुत ही संतुष्ट हुआ। वह समाचार सुनानेवालोंके लिए बहुत-सा पुरस्कार देकर जिन-पूजा करनेकी इच्छासे निकला और जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना कर वहाँ से वापिस लौट नगरमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ चक्ररत्नकी पूजा कर वह दिग्विजय करनेके लिए उद्यत हुआ ही था कि उसी समय उसी नगरमें पुरोहित, गृहपति स्थपति, और सेनापति ये चार tea प्रकट हुए तथा विद्याधर लोग विजयार्ध पर्वतसे हाथी घोड़ा और कन्या रत्न ले आये ।।७१-७५।। गणबद्धनाम के देव नदीमुखों नदियोंके गिरनेके स्थानों में उत्पन्न हुई नौ बड़ी बड़ी निधियाँ भक्ति पूर्वक स्वयं ले आये ।। ७६ ।। उसने छह प्रकार की प्रशंसनीय सेनाके साथ प्रस्थान किया, दिशाओं को जीतकर उनके सारभूत रत्न ग्रहण किये, सब पर विजय प्राप्त की और अन्त में देव, मनुष्य तथा विद्याधर राजाओं के द्वारा सेवित होते हुए उसने अपनी राजधानीमें प्रवेश किया । वहाँ वह दश प्रकारके भोगों का निराकुलतासे उपभोग करता हुआ चिरकाल तक स्थित रहा ।। ७६-७८ ॥
किसी एक समय कार्तिक मासके नन्दीश्वर पर्व सम्बन्धी आठ दिनोंमें उसने महा पूजा की और अन्तिम दिन उपवासका नियम ले कर वह महलकी छतपर सभा के बीच में बैठा था और ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो आकाशमें शरद ऋतुका चन्द्रमा सुशोभित हो। वहीं बैठे-बैठे उसने देखा कि चन्द्रमाको राहुने ग्रस लिया है ।। ७६ - ८० ।। यह देख वह विचार करने लगा कि संसार की इस अवस्थाको धिक्कार हो । देखो, यह चन्द्रमा ज्योतिर्लोकका मुख्य नायक है, पूर्ण है और अपने परिवारसे घिरा हुआ है फिर भी राहुने इसे प्रस लिया । जब इसकी यह दशा है तब जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसा समय आनेपर दूसरोंकी क्या दशा होती होगी । इस
१ राजभारं क०, घ० । २ महाभक्त्या म०, ल० ।
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