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महापुराणे उत्तरपुराणम् बोधश्चाखिलजं तमो व्यपहरद अनं जगद्वन्दितं,
बन्दे तन्मुनिसुव्रतस्य भगवन्साई तवेन्द्रादिभिः॥५०॥ कार्य कारणतो गुणं च 'गुणिनो भेदं च सामान्यतो
वक्त्येकः पृथगेव कोऽप्यपृथगित्येकान्ततो न द्वयम् । सत्सर्व घटते तवैव नयसंयोगाचतस्त्वं सता
माप्तोऽभूर्मुनिसुव्रताय भगवस्तुभ्यं नमः कुर्महे ॥ ५९ ॥ प्रागासीद्धरिवर्मनामनृपतिलब्ध्वा तपो बद्धवान्
___ नामान्त्यं बहुभावनः शुचिमतिर्यः प्राणतेन्द्रोऽभवत् । च्युत्वाऽस्मान्मुनिसुव्रतो हरिकुलव्योमामलेन्दुर्जिनो
भूत्वा भव्यकुमुद्वतीं व्यकचयल्लक्ष्मी प्रदिश्यात्मनः ।। ६०॥ तत्तीर्थ एव चक्रेशो हरिषेणसमाह्वयः । स तृतीयभवेऽनन्तजिनतीर्थे नृपो महान् ॥ ६ ॥ कृत्वा तपः समुत्कष्ट कोऽपि केनापि हेतुना । सनत्कुमारकल्पेऽभूत्सुविशालविमानके ॥ ६२॥ षट्सागरोपमात्मायुर्भुक्त्वा भोगाननारतम् । ततः प्रच्युत्य तीर्थेऽस्मिन् राज्ये भोगपुरेशितुः ॥ ६३ ॥ प्रभोरिक्ष्वाकुवंशस्य पद्मनाभस्य भामिनी । ४ऐराऽनयोः सुतो जातो हरिषेणः सुरोत्तमः ॥ ६४ ॥ समायुतमितात्मायुः कनकच्छूरसच्छविः । धनुर्विशतिमानाङ्गः 'क्रमेणापूर्णयौवनः ॥ ३५॥ कदाचित्तेन गत्वाऽमा पद्मनाभमहीपतिः। जिनं मनोहरोद्यानेऽनन्तवीर्याभिधानकम् ॥ १६ ॥ अभिवन्द्य ततः श्रुत्वा तत्त्वं संसारमोक्षयोः । सन्त्यज्य राजसी वृत्तिं शमे स्थातु समुत्सुकः ॥१७॥
हे प्रभो! आपके शरीरकी प्रभासे व्याप्त हुई यह सभा ऐसी जान पड़ती है मानो नील कमलोंका वन ही हो. हृदयगत अन्धकारको नष्ट करने वाले आपके वचन सूर्यसे उत पराजित करते हैं, इसी तरह आपका ज्ञान भी संसारके समस्त पदार्थो से उत्पन्न हुए अज्ञानान्धकारको नष्ट करता है इसलिए हे भगवन् मुनिसुव्रतनाथ ! जिसे इन्द्रादि देवोंके साथ-साथ सब संसार नमस्कार करता है मैं आपके उस ज्ञानरूपी सूर्यको सदा नमस्कार करता हूँ॥५८॥ कोई तो कारणसे कार्यको, गुणीसे गुणको और सामान्यसे विशेषको पृथक् बतलाते हैं और कोई एक-अपृथक् बतलाते हैं ये दोनों ही कथन एकान्तवादसे हैं अतः घटित नहीं होते परन्तु आपके नयके संयोगसे दोनों ही ठीक-ठीक घटित हो जाते हैं इसीलिए हे भगवन् ! सज्जनपुरुष आपको आप्त कहते हैं और इसीलिए हम सब आपको नमस्कार करते हैं।॥५६॥ जो पहले हरिवर्मा नामके राजा थे, फिर जिन्होंने तप कर तथा सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किया, तदनन्तर समाधिमरणसे शरीर छोड़कर प्राणतेन्द्र हुए और वहाँ से आकर जिन्होंने हरिवंशरूपी आकाशके निर्मल चन्द्रमास्वरूप तीर्थंकर होकर भव्यजीवरूपी कुमुदिनियोंको विकसित किया वे श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र हम सबके लिए अपनी लक्ष्मी प्रदान करें ।। ६०॥
इन्हीं मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकरके तीर्थमें हरिषेण नामका चक्रवर्ती हुआ। वह अपनेसे पूर्व तीसरे भवमें अनन्तनाथ तीर्थंकरके तीर्थमें एक बड़ा भारी राजा था। वह किसी कारणसे उत्कृष्ट तप कर सनत्कुमार स्वर्गके सुविशाल नामक विमानमें छह सागरकी आयुवाला उत्तम देव हुआ। वहाँ निरन्तर भोगोंका उपभोग कर वहाँसे च्युत हुआ और श्रीमुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकरके तीर्थमें भोग पुर नगरके स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा पद्मनाभकी रानी ऐराके हरिषेण नामका उत्तम पुत्र हुआ ॥६१६४॥ दशहजार वर्षकी उसकी आयु थी, देदीप्यमान कच्छूरसके समान उसकी कान्ति थी, चौबीस धनुष ऊंचा शरीर था और क्रम-क्रमसे उसे पूर्ण यौवन प्राप्त हुआ था ॥६५॥ किसी एक दिन राजा पद्मनाभ हरिषेणके साथ-साथ मनोहर नामक उद्यान में गये हुए थे वहाँ अनन्तवीर्य नामक जिनेन्द्र
१ गणितो ल०।२ तृतीया ल०।३ सुविशालविमानकः ल०। ४ ऐरा तयोः ल०। ५ कनकच्छरस ल० । ६ क्रमेण ल०१७ महामति ल०।८ तत्बे क०, ५०, म०।६ राजसा ल०।
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