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महापुराणे उत्तरपुराणम्
त्रिंशत्सहस्रवर्षायुश्वापविंशतिसम्मितः । 'सर्पाशनगलच्छायः सम्पन्नाखिललक्षणः ॥ २९ ॥ खद्वयेन्द्रियससातवर्षेः कौमारनिर्गमे । राज्याभिषेकं सम्प्राप्य प्राप्तानन्दपरम्परः ॥ ३० ॥ शून्यत्रिकेन्द्रियैकोक्तसंवत्सरपरिक्षये । गर्जङ्घनघटाटोपसमये यागहस्तिनः ॥ ३१ ॥ वनस्मरणसन्त्य क्तकवलग्रहणं नृपः । निरीक्ष्यावधिनेत्रेण विज्ञातैतन्मनोगतः ॥ ३२ ॥ सत्पूर्वभवसंबद्धं कौतूहलवतां नृणाम् । अवोचद् वृत्तिमित्युच्चैः स मनोहरया गिरा ॥ ३३ ॥ पूर्वं तालपुराधीशो नान्ना नरपतिर्नृपः । महाकुलाभिमानादिदुर्लेश्याविष्टचित्तकः ॥ ३४ ॥ पात्रापात्रविशेषानभिज्ञः कुज्ञानमोहितः । दत्त्वा किमिच्छकं दानं तत्फलात्समभूदिभः ॥ ३५ ॥ नाज्ञानं स्मरति प्राच्यं न राज्यं पूज्यसम्पदम् । कुदानस्य च नैःफल्यं वनं स्मरति दुर्मतिः ॥ ३६ ॥ तद्वचः श्रवणोत्पन्नस्व पूर्वभवसंस्मृतेः । संयमासंयमं सद्यो जग्राह गजसत्तमः ॥ ३७ ॥ तत्प्रत्ययसमुत्पन्नबोधिस्त्या गोन्मुखो नृपः । लौकान्तिकैस्तदैवैत्य प्रस्तुतोक्त्या प्रतिश्रुतः ॥ ३८ ॥ स्वराज्यं युवराजाय विजयाय वितीर्य सः । सुरैः सम्प्राप्तनिः क्रान्तिकल्याणमधीगुणः (१) ॥३९॥ अपराजितनामोरुशिबिकामधिरूढवान् । रूढकीर्तिः क्षरन्मूढिरूढो नरखगा' मरैः ॥ ४० ॥ प्राप्य षष्ठोपवासेन वनं नीलाभिधानकम् । वैशाखे बहुले पक्षे श्रवणे दशमीदिने ॥ ४१ ॥ सहस्त्रभूपैः सायाह्ने सह संयममग्रहीत् । कैश्यमीशः सुरेशानां सुरेशो विश्वदृश्वनः ॥ ४२ ॥
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ले जाकर उनका जन्माभिषेक किया और मुनिसुव्रतनाथ यह नाम रक्खा ॥ २८ ॥ उनकी आयु तीस हजार वर्षकी थी, शरीरकी ऊंचाई बीस धनुषकी थी, कान्ति मयूरके कण्ठके समान नीली थी, और स्वयं वे समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न थे ॥ २६ ॥ कुमार कालके सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जानेपर वे राज्याभिषेक पाकर आनन्दकी परम्पराको प्राप्त हुए थे ॥ ३० ॥ इस प्रकार जब उनके पन्द्रह हजार वर्ष बीत गये तब किसी दिन गर्जती हुई घन-घटाके समय उनके यागहस्तीने वनका स्मरण कर ग्रास उठाना छोड़ दिया - खाना पीना बन्द कर दिया । महाराज मुनिसुव्रतनाथ, अपने अवधिज्ञान रूपी नेत्रके द्वारा देख कर उस हाथीके मनकी सब बात जान गये । वे कुतूहल से भरे हुए मनुष्यों के सामने हाथी पूर्वभवसे सम्बन्ध रखने वाला वृत्तान्त उच्च एवं मनोहर वाणीसे इस प्रकार कहने लगे ।। ३१ - ३३ ।। पूर्व भवमें यह हाथी तालपुर नगरका स्वामी नरपति नामका राजा था, वहाँ अपने उच्च कुलके अभिमान आदि खोटी-खोटी लेश्याओंसे इसका चित्त सदा विस रहता था, वह पात्र और अपात्रकी विशेषतासे अनभिज्ञ था, मिथ्या ज्ञानसे सदा मोहित रहता था । वहाँ इसने किमिच्छक दान दिया था उसके फलसे यह हाथी हुआ है ।। ३४-३५ ।। यह हाथी इस समय न तो अपने पहले अज्ञानका स्मरण कर रहा है, न पूज्य सम्पदा से युक्त राज्यका ध्यान कर रहा है और न कुदानकी निष्फलताका विचार कर रहा है ।। ३६ ।। भगवान् के वचन सुननेसे उस उत्तम हाथीको अपने पूर्व भवका स्मरण हो आया इस लिए उसने शीघ्र ही संयमासंयम धारण कर लिया ॥ ३७ ॥ इसी कारणसे भगवान् मल्लिनाथको आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया जिससे वे समस्त परिग्रहों का त्याग करनेके लिए सम्मुख हो गये । उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की तथा उनके विचारोंका समर्थन किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने युवराज विजयके लिए अपना राज्य देकर देवोंके द्वारा दीक्षा कल्याणकका महोत्सव प्राप्त किया ॥ ३६ ॥ जिनकी कीर्ति प्रसिद्ध है, जिनका मोहकर्म दूर हो रहा है, और मनुष्य विद्याधर तथा देव जिन्हें ले जा रहे हैं ऐसे वे भगवान् अपराजित नामकी बिशाल पालकीपर सवार हुए ॥ ४० ॥ नील नामक वनमें जाकर उन्होंने वेलाके उपवासका नियम लिया और वैशाख कृष्ण दशमीके दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकालके समय एक हजार राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया । शाश्वतपद - मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा करने वाले सौधर्म इन्द्रने सर्वदर्शी भगवान् मल्लिनाथके बालोंका समूह पम
१ सहसान ल०, म० । सर्पाशनः सहसानश्च उभयोर्मयूरोऽर्थः । २ युवराज्याय ल० । ३ खगाधिपैः क०, घ० । ४ समं म०, ल० ।
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