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सप्तषष्टितमं पर्व निवृत्तौ प्रतशब्दार्थो यस्याभूत सर्ववस्तुषु । देयामः स प्रत स्वस्य सुब्रतो मुनिसुव्रतः ॥ १ ॥ तृतीये जन्मनीहासीजिनेन्द्रो मुनिसुव्रतः। भारतेऽनाख्यविषये नृपश्चम्पापुराधिपः ॥२॥ हरिवर्माभिधोऽन्येचुरथोद्याने जिनेश्वरम् । अनन्तवीर्यनान्नासावनगार विवन्दिषुः ॥ ३ ॥ गत्वात्मपरिवारेण ससपर्यः परीत्य तम् । त्रिः समभ्यय॑ वन्दित्वा प्राक्षीद्धर्म सनातनम् ॥ ४ ॥ संसारी मुक्त इत्यात्मा २द्विधा कर्मभिरष्टभिः । बद्धं संसारिणं प्राहुस्तैर्मुक्को मुक्त इष्यते ॥ ५॥ मूलभेदेन तान्यष्टौ ज्ञानावृत्त्यादिनामभिः । ज्ञेयान्युत्तरभेदेन वस्व'ध्येकोक्तसङ्ख्यया ॥ ६ ॥ बन्धश्चतुःप्रकारः स्यात्प्रकृत्यादिविकल्पितः। प्रत्ययोऽपि चतुर्भेदो मिथ्यात्वादिजिनोदितः ॥७॥ उदयादिविकल्पेन कर्मावस्था चतुर्विधा । संसारः पञ्चधा प्रोक्तो द्रव्यक्षेत्रादिलक्षणः ॥८॥ रोधो गुप्त्यादिभिस्तेषां तपसा रोधनिर्जरे । तुरीयशुक्लध्यानेन मोक्षः सिद्धस्ततो भवेत् ॥ ९॥ कृत्सकर्मक्षयो मोक्षो निर्जरा त्वेकदेशतः। "मुक्तस्यातुलमत्यन्तरायमात्यन्तिकं सुखम् ॥ १०॥ इत्यादि तत्वसर्वस्वं भगवांस्तमबुधत् । स्ववचोरश्मिजालेन भन्याब्जानां प्रबोधकः ॥११॥ सोऽपि तत्तत्त्वसद्भावमवगम्य यथोदितम् । निविय संसृतेज्येष्ठ पुत्र राज्य नियोज्य तत् ॥ १२॥ ग्रन्थद्वयपरित्यागे पटुवटुलमाययो। संयम बहुभिः साई मुर्धन्यैरूचंगामिभिः ॥ १३॥ अवादीधरदेकादशाङ्गानि गुरुसङ्गमात् । अबध्नात्तीर्थकृद्गोत्र श्रद्धाशुद्ध्यादिभावनः ॥ १४ ॥
जिनके नामके व्रत शब्दका अर्थ सभी पदार्थोंका त्याग था और जो उत्तम व्रतके धारी थे ऐसे श्री मुनिसुव्रत भगवान् हम सबके लिए अपना व्रत प्रदान करें ॥१॥ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ इस भवसे पूर्व तीसरे भवमें इसी भरतक्षेत्रके अंग देशके चम्पापुर नगरमें हरिवर्मा नामके राजा थे। किसी एक दिन वहाँ के उद्यानमें अनन्तवीर्य नामके निर्ग्रन्थ मुनिराज पधारे। उनकी वन्दना करने की इच्छासे राजा हरिवमो अपने समस्त परिवारके साथ पूजाकी सामग्री लेकर उनके पास र वहाँ उन्होंने उक्त मुनिराजकी तीन प्रदक्षिणाएं दी, तीन वार पूजा की, तीनवार बन्दना की और तदनन्तर सनातन धर्मका स्वरूप पूछा ।। २-४ ॥ मुनिराजने कहा कि यह जीव संसारी और मुक्तके भेदसे दो प्रकारका है। जो आठ कर्मोसे बद्ध है उसे संसारी कहते हैं और जो आठ कर्मोंसे मुक्त है-रहित है उसे मुक्त कहते हैं ॥५॥ उन कर्मों के ज्ञानावरणादि नामवाले आठ मूल भेद हैं और उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस हैं ॥६॥ प्रकृति आदिके भेदसे बन्धके चार भेद हैं और मिथ्यात्व अविरति कषाय तथा योगके भेदसे प्रत्यय-कर्मबन्धका कारण भी चार प्रकारका जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है॥७॥ उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके भेदसे कोंकी अवस्था चार प्रकारकी होती है तथा द्रव्य क्षेत्र काल भव और भावकी अपेक्षा संसार पाँच प्रकारका कहा गया है ।। ८॥ गुप्ति आदिके द्वारा उन कर्मोका संवर होता है तथा तपके द्वारा संवर और निर्जरा दोनों होते हैं। चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा मोक्ष होता है और मोक्ष होनेसे यह जीव सिद्ध कहलाने लगता है ॥॥ सम्पूर्ण कोका क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है और एकदेश क्षय होना निर्जरा कही जाती है ! मुक्त जीवका जो सुख है वह अतुल्य अन्तरायसे रहित एव आत्यन्तिक-अन्तातीत होता है॥१०॥ इस प्रकार अपने वचनरूपी किरणोंकी जालसे भव्यजीत्ररूपी कमलोंको विकसित करनेवाले भगवान् अनन्तवीर्य मुनिराजने राजा हरिवर्माको तत्त्वका उपदेश दिया ।। ११॥राजा हरिवर्मा भी मुनिराजके द्वारा कहे हुए तत्त्वके सद्भावको ठीक-ठीक समझकर संसारसे विरक्त हो गये। उन्होंने अपना राज्य बड़े पुत्रके लिए देकर बाह्याभ्यन्तरके भेदसे दोनों प्रकारके परिप्रहका त्याग कर दिया और शीघ्र ही
१ अनन्तवीर्य नाम्ना ल०।२ द्वधा क०, घ०, म०।३ वस्वन्ध्येकसंख्यया ल०।४ युक्तस्य ल।
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