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सप्तषष्टितम पर्व शाश्वतं पदमन्विच्छन् प्रापयत्पञ्चमाम्बुधिम् । चतुर्थावगमः शुद्धमताप्सीत् सोऽप्यलं तपः ॥४३॥ समभावनया तृप्यन् तृतोऽपि तनुसंस्थितेः। कदाचिस्पारणाकाले प्रायाद्राजगृहं पुरम् ॥४४॥ प्रदाय प्रासुकाहारं तस्मै चामीकरच्छबिः । नृपो वृषभसेनाख्यः पञ्चाश्चर्यमवापिवान् ॥ ४५॥ मासोनवत्सरे याते छानस्थ्ये स्वतपोवने । चम्पकममूलस्थो विहितोपोषितद्वयः ॥ ४६ ॥ स्वदीक्षापक्षनक्षत्रसहिते नवमीदिने । साया केवलज्ञानं सद्ध्यानेनोदपादयत् ॥४७॥ तदैवागत्य देवेन्द्रास्तत्कल्याणं व्यधुर्मंदा । मानस्तम्भादिविन्यासविविधद्धिविभूषितम् ॥४८॥ मल्लिप्रभृतयोऽभूवमष्टादशगणेशिनः । द्वादशाङ्गधराः पञ्चशतानि परमेष्ठिनः ॥ ४९ ॥ शिक्षकास्तस्य सद्वन्याः सहस्राण्येकविंशतिः। भर्तुरष्टशतं प्रान्तसहस्रमवधीक्षणाः ॥ ५० ॥ तावन्तः केवलज्ञानाः विक्रियहिंसमृद्धयः। द्विशतद्विसहस्राणि चतुर्थज्ञानधारिणः ॥ ५ ॥ सहस्रार्द्ध सहस्रं तु वादिनां द्विशताधिकम् । सहस्रं पिण्डितास्त्रिंशत्सहस्राणि मुनीश्वराः ॥ ५२ ॥ पुष्पदन्तादयः पञ्चाशत्सहस्राणि चायिकाः । एककाः श्रावकाः लक्ष्याः त्रिगुणाः श्राविकास्ततः ॥५३॥ असङ्ख्यातो मरुत्सद्धः सख्यातो द्वादशो गणः । एषां धर्म ब्रुवनार्यक्षेत्राणि व्यहरचिरम् ॥ ५ ॥ विहृत्य मासमात्रायुः सम्मेदाचलमूर्धनि । प्रतिमायोगधारी सन् ससहस्त्रमुनीश्वराः ॥ ५५ ॥ फाल्गुने श्रवणे कृष्णद्वादश्यां निशि पश्चिमे। भागे हिरवा तर्नु मुक्किमवापन्मुनिसुव्रतः ॥ ५६ ॥ कृत्वा पञ्चमकल्याणसपर्यामूर्जितोदयम् । वन्दित्वा सुरवन्दारुवृन्दं यातं यथायथम् ॥५॥
शार्दूलविक्रीडितम् । व्यासं स्वत्प्रभया सदो विजयते नीलोत्पलानां वनं
ध्वान्तं वाक् च मनोगतं धुतवतीमा भानुजां भासुराम् । सागर-क्षीरसागर भेज दिया। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया और इस तरह उन्होंने दीर्घकाल तक शुद्ध तथा निर्मल तप किया ॥४१-४३ ॥ यद्यपि वे समभावसे ही तृप्त रहते थे तथापि किसी दिन पारणाके समय राजगृह नगरमें गये ॥४४॥ वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले वृषभसेन नामक राजाने उन्हें प्रासुक आहार देकर पश्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ ४५ ॥ इस प्रकार तश्चपरण करते हुए जब छद्मस्थ अवस्थाके ग्यारह माह बीत चुके तब वे अपने दीक्षा लेनेके वनमें पहुँचे । वहाँ उन्होंने चम्पक वृक्षके नीचे स्थित हो कर दो दिनके उपवासका नियम लिया और दीक्षा लेनेके मास पक्ष नक्षत्र तथा तिथिमें ही अर्थात् वैशाख कृष्ण नवमीके दिन श्रवण नक्षत्रमें शामके समय उत्तम ध्यानके द्वारा केवलज्ञान उत्पन्न कर लिया ॥ ४६-४७ ॥ उसी समय इन्द्रोंने आकर बड़े हर्षसे ज्ञानकल्याणकका उत्सव किया और मानस्तम्भ आदिकी रचना तथा अनेक ऋद्धियों-सम्पदा
से विभूषित समवसरणकी रचना की ।। ४८॥ उन परमेष्ठीके मल्लिको आदि ले कर अठारह गणधर थे, पांच सौ द्वादशांगके जानने वाले थे, सजनोंके द्वारा वन्दना करनेके योग्य इक्कीस हजार शिक्षक थे, एक हजार आठसौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, दो हजार दो सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक थे, एक हजार पांचसौ मनःपर्ययज्ञानी थे, और एक हजार दो सौ वादी थे। इस प्रकार सब मिलाकर तीस हजार मुनिराज उनके साथ थे॥४१-५२॥ पुष्पदन्ताको आदि लेकर पचास हजार आर्यिकाएं थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएं थीं, संख्यात तिर्यञ्च
और असंख्यात देव देवियोंका समूह था। इस तरह उनकी बारह सभाएं थीं। इन सबके लिए धर्मका उपदेश देते हुए उन्होंने चिरकालतक आर्य क्षेत्रमें विहार किया। विहार करते-करते जब उनकी
आयु एक माहकी बाकी रह गई तब सम्मेदशिखरपर जाकर उन्होंने एक हजार मुनियोंके साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और फाल्गुन कृष्ण द्वादशीके दिन रात्रिके पिछले भागमें शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया ॥५३-५६॥ उसी समय श्रेष्ठ देवोंके समूहने आकर पन्चमकल्याणककी पूजा की, बड़े वैभवके साथ वन्दना की और तदनन्तर सब देव यथास्थान चले गये ॥५७ ॥
१सहान सहस्रं तु क., घ०। २ पिण्डिताः पण्डितास्त्रिंशत् लः। ३ पुष्पदत्तादयः ल । ४-मूर्जितोदयाम् ल० | ५ यथातथम् ल.
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