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षट्षष्टितम पर्व
२३६ पुण्योदयात्क्रमेणाप्य चक्रित्वं विक्रमार्जितम् । दशाङ्गभोगानिःसङ्गमभङ्गानम्वभूञ्चिरम् ॥ ७९ ॥ पृथिवीसुन्दरीमुख्यास्तस्याष्टौ पुत्रिकाः सतीः । सुकेतुखचराधीश पुत्रेभ्योऽदात्प्रसन्नवान् ॥ ८॥ एवं सुखेन 'कालेऽस्य याति सत्यम्बुदोऽम्बरे । प्रेक्ष्यः प्रमोदमुत्पाद्य सद्योऽसौ बिकृतिं ययौ ॥८॥ तं वीक्ष्य न विपक्षोऽस्य तयाप्येषोऽगमल्लयम् । सम्पत्सु सर्वविद्विसु का स्थैर्यास्था विवेकिनः ॥ ८२॥ इति चक्री समालोच्य संयमेऽभूद्रतस्तदा । सुकेतुः कुलवृद्धोऽस्य नाना दुश्चरितोऽब्रवीत् ॥ ८३ ॥ राज्यसम्प्राप्तिकालस्ते कनीयान् नवयौवनः । भोगान् भुवन कालोऽयं तपसः किं विधीवेः ॥८४॥ केनापि तपसा कार्य किं वृथाऽऽयासमात्रकम् । नात्र किञ्चित्फलं नैव परलोकश्च कश्चन ॥ ८५॥ कथन परलोकश्चेदभावात्परलोकिनः । पञ्चभूतात्मके काये चेतना मदशक्तिवत् ॥ ८६ ॥ पिष्टकिण्वादिसंयोगे तदात्मोक्तिः खपुष्पवत् । ततः प्रेत्योपभोगादिकाङ्क्षा स्वकृतकर्मणः ॥ ८७॥ वन्ध्यास्तनन्धयस्येव खपुष्पापीडलिप्सनम् । आग्रहोऽयं परित्याज्यो राज्यं कुरु निराकुलम् ॥ ८८॥ सत्यप्यात्मनि कौमारे सुकुमारः कथं तपः । सहसे निष्ठुरं देव पुष्करैरपि दुष्करम् ॥ ८९ ॥ इत्युक्तं तदमात्यस्य स श्रुत्वा शून्यवादिनः । रूपादिरूप एवात्र भूतसङ्घोऽभिलक्ष्यते ॥ ९० ॥
सुखदुःखादिसंवेद्यं चैतन्यं तद्विलक्षणम् । तद्वान् देहादिहान्योऽयं स्वसंवित्यानुभूयते ॥ ९१ ॥ ॥७६-७८।। पुण्यके उदयसे उसने क्रमपूर्वक अपने पराक्रम के द्वारा अर्जित किया हुआ चक्रवर्तीपना प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक बाधा रहित दश प्रकारके भोगोंका आसक्तिके बिना ही उपभोग किया था HE || उसके पृथिवीसुन्दरीको आदि लेकर आठ सती पुत्रियाँ थीं जिन्हें उसने बड़ी प्रसन्नताके साथ सुकेतु नामक विद्याधरके पुत्रों के लिए प्रदान किया था ।। ८०॥ इस प्रकार चक्रवर्ती पद्मका काल सुखसे व्यतीत हो रहा था। एक दिन आकाशमें एक सुन्दर बादल दिखाई दिया जो चक्रवर्तीको हर्ष उत्पन्न कर शीघ्र ही नष्ट हो गया ॥ ८१॥ उसे देखकर चक्रवर्ती विचार करने लगा कि इस बादलका यद्यपि कोई शत्रु नहीं है तो भी यह नष्ट हो गया फिर जिनके सभी शत्रु हैं ऐसी सम्पत्तियों में विवेकी मनुष्यको स्थिर रहनेकी श्रद्धा कैसे हो सकती है ? ।। ८२॥ ऐसा विचार कर चक्रवर्ती संयम धारण करनेमें तत्पर हुआ ही था कि उसी समय उसके कुलका वृद्ध दुराचारी सुकेतु कहने लगा कि यह तुम्हारा राज्य प्राप्तिका समय है, अभी तुम छोटे हो, नवयौवनके धारक हो, अतः भोगोंका अनुभव करो, यह समय तपके योग्य नहीं है, व्यर्थ ही निबुद्धि क्यों हो रहे हो ? ॥८३८४॥ किसी भी तपसे क्या कुछ कार्य सिद्ध होता है। व्यर्थ ही कष्ट उठाना पड़ता है, इसका कुछ भी फल नहीं होता और न कोई परलोक ही है।८५।। परलोक क्यों नहीं है यदि यह जानना चाहते हो तो सुनो, जब परलोकमें रहनेवाले जीवका ही अभाव है तब परलोक कैसे सिद्ध झे जावेगा? जिस प्रकार आटा और किण्व आदिके संयोगसे मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पञ्चभूतसे बने हुए शरीरमें चेतना उत्पन्न हो जाती है इसलिए आत्मा नामका कोई पदार्थ है ऐसा कहना आकाश-पुष्पके समान है। जब आत्मा ही नहीं है तब मरनेके बाद अपने किये हुए कर्मका फल भोगने आदिकी आकांक्षा करना वन्ध्यापुत्रके आकाश-पुष्पका सेहरा प्राप्त करनेकी इच्छाके समान है। इसलिए यह तप' करनेका आग्रह छोड़ो और निराकुल होकर राज्य करो ॥८६-८८ ।। इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि यदि किसी तरह जीवका अस्तित्व मान भी लिया जाय तो इस कुमारावस्थामें जब कि आप अत्यन्त सुकुमार हैं जिसे प्रौढ़ मनुष्य भी नहीं कर सकते ऐसे कठिन तपको किस प्रकार सहन कर सकेंगे ? ॥८६॥ इस प्रकार शून्यवादी मन्त्रीका कहा सुनकर चक्रवर्ती कहने लगा कि इस संसारमें जो पश्चभूतोंका समूह दिखाई देता है वह रूपादि रूप है-स्पर्श रस गन्ध और वर्ण युक्त होनेके कारण पुद्गलात्मक है । मैं सुखी हूं मैं दुःखी हूँ इत्यादिके द्वारा जिसका वेदन होता है वह चैतन्य भूत समूहसे भिन्न है-पृथक् है । हमारे इस शरीरमें शरीरसे पृथक् चैतन्य गुण युक्त जीव नामका पदार्थ विद्यमान है इसका स्वसंवेदनसे अनुभव होता है और
१ खचराधीशः पुत्रेभ्यो ग०, म०, ल० । २ कालस्य लः । ३ अति प्रौढेः 'पुक्कलस्तु पूर्णश्रेष्ठे' क०, म०, टिप्पण्याम् । दुष्करैः ल०।
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