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षट्षष्टितमं पर्व
२४१ मालिनी प्रथममजनि राजा यः प्रजापालनामा
शमितकरणवृत्त्या प्रान्तकल्पेश्वरोऽभूत् । सवलभरतनाथः शर्मणः सद्म पद्मः ।
परमपदमवापत्सोऽमलं शं क्रियान्नः ॥ १०१ ॥ तीर्थेऽस्मिन्नेव 'सम्भूतौ सप्तमौ रामकेशवौ। तृतीये तौ भवेऽभूतां साकेते राजपुत्रकौ ॥ १०२॥ अप्रियत्वात्पिता त्यक्त्वा तौ स्रेहेन कनीयसे । भ्राने स्वस्मै ददौ यौवराज्यं पदमकल्पितम् ॥ १०३ ॥ मन्त्रिणेव कृत सर्वमिदमित्यतिकोपिनौ । अमात्ये बद्धवैरौ तौ धर्मतीर्थान्वयानुगौ ॥ १० ॥ शिवगुप्तमुनेरन्तेवासितामेत्य संयमम् । विधाय सुविशालाख्ये सौधर्मेऽमरतां गतौ ॥ १०५ ॥ ततः प्रच्युत्य भूपस्य वाराणस्यां बभूवतुः । इक्ष्वाकुति लकस्याग्निशिखस्य तनयौ प्रियौ ॥ १०६ ॥ माताऽपराजिता केशवती च क्रमशस्तयोः । नन्दिमित्राहयो ज्येष्ठः कनिष्ठो दत्तसंज्ञकः ॥ १०७ ।। द्वात्रिंशत्खत्रयाब्दानौ द्वाविंशतिधनुस्तनू । चन्द्रेन्द्रनीलसङ्काशाववढेतामनुत्तरौ ॥ १.८॥ ततो मन्त्री च पूर्वोक्तो भ्रान्त्वा संसारसागरे । क्रमेण विजया द्विमन्दराख्यपुराधिपः ॥ १०९ ॥ २बलीन्द्राभिधया ख्यातो जातो विद्याधराधिपः । सोऽन्येधुर्युवयोर्भद्रक्षीरोदाख्योऽस्ति विश्रुतः ॥ ११०॥ महान्ममैव योग्योऽसौ दीयतां गन्धवारणः । इति दर्पाटतिष्टम्भी प्राहिणोत्प्रति तौ वचः॥ १११॥
श्रुत्वा तद्वचनं तौ च तेनावाभ्यां सुते स्वयम् । देये चेद्दीयते दन्ती नोचेत्सोऽपि न दीयते ॥ ११२॥ मन्दरागके धारक थे, राजाओंके योग्य तेजसे श्रेष्ठ थे, और चक्रवर्तियोंमें नौवें चक्रवर्ती थे ऐसे पद्म बड़े हर्षसे सुशोभित होते थे।॥ १०॥
जो पहले प्रजापाल नामका राजा हुआ था, फिर इन्द्रियोंको दमन कर अच्युत स्वर्गका इन्द्र हुआ, तदनन्तर समस्त भरत क्षेत्रका स्वामी और अनेक कल्याणोंका घर पद्म नामका चक्रवर्ती हुआ, फिर परमपदको प्राप्त हुआ ऐसा चक्रवर्ती पद्म हम सबके लिए निर्मल सुख प्रदान करे ।। १०१।।
अथानन्तर-इन्हीं मल्लिनाथ तीर्थंकरके तीर्थमें सातवें बलभद्र और नारायण हुए थे वे अपनेसे पूर्व तीसरे भवमें अयोध्यानगरके राजपुत्र थे ।। १०२ ॥ वे दोनों पिताके लिए प्रिय नहीं थे इसलिए पिताने उन्हें छोड़कर स्नेहवश अपने छोटे भाईके लिए युवराज पद दे दिया। यद्यपि छोटे भाईके लिए युवराज पदादेनेका निश्चय नहीं था फिर भी राजाने उसे युवराज पद दे दिया ।। १०३ ।। दोनों भाइयोंने समझा कि यह सब मन्त्रीने ही किया है इसलिए वे उसपर बहुत कुपित हुए और उसपर वैर बाँध कर धर्मतीर्थके अनुगामी बन गये। उन्होंने शिवगुप्त मुनिराजकी शिष्यता स्वीकृत कर संयम धारण कर लिया। जिससे आयुके अन्तमें मरकर सौधर्म स्वर्गके सुविशाल नामक विमानमें देव पदको प्राप्त हो गये ।। १०४-१०५ ॥ वहाँसे च्युत होकर बनारसके राजा इक्ष्वाकुवंशके शिरोमणि राजा अग्निशिखके प्रिय पुत्र हुए ॥ १०६॥ क्रमशः अपराजिता और केशवती उन दोनोंकी माताएँ थीं । नन्दिमित्र बड़ा भाई था और दत्त छोटा भाई था ॥ १०७ ।। बत्तीस हजार वर्षकी उनकी आयु थी। बाईस धनुष ऊँचा शरीर था, क्रमसे चन्द्रमा और इन्द्रनील मणिके समान उनके शरीरका वर्ण था और दोनों ही श्रेष्ठतम थे ॥ १०८ ॥
तदनन्तर-जिसका वर्णन पहले आ चुका है ऐसा मन्त्री, संसार-सागरमें भ्रमण कर क्रमसे विजया पर्वत पर स्थित मन्दरपुर नगरका स्वामी बलीन्द्र नामका विद्याधर राजा हुआ। किसी एक दिन बाधा डालनेवाले उस बलीन्द्रने अहंकारवश तुम्हारे पास सूचना भेजी कि तुम दोनोंके पास जो भद्रक्षीर नामका प्रसिद्ध बड़ा गन्धगज है वह हमारे ही योग्य है अतः हमारे लिए ही दिया जावे ॥१०६-१११ ।। दूतके वचन सुनकर उन दोनोंने उत्तर दिया कि यदि तुम्हारा स्वामी वलीन्द्र हम
१ सम्भूताम् ल०। २ म पुस्तके एवं पाठः 'सोऽन्येायु वयोर्भद्र क्षीरोदाख्योऽतिविश्रुतिः । क्लीन्द्राभिधया ख्यातो जातो विद्याधराधिपः ॥११०॥
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