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महापुराणे उत्तरपुराणम् जितखलाखिलमोहमहारिपु
दिशतु मल्लिरसावतुलं सुखम् ॥ ६६ ॥ मल्लेजिनस्य सन्तानेऽभूत्पझो नाम चक्रभृत् । द्वीपेऽस्मिन् प्राच्यसौ मेरोः सुकच्छविषये नृपः ॥ ६७ ॥ श्रीपुरेशः प्रजापालस्तृतीयेऽजनि जन्मनि । स्वामिप्रकृतिसम्प्रोक्तगुणानामुत्तमाश्रयः ॥ ६८॥ सुराज्ञस्तस्य नाभवन्राज्येऽस्यायुक्तिकादिभिः । प्रजानां पञ्चभिर्बाधास्तदव छन्त ताः सुखम् ॥ ६९ ॥ शक्तित्रितयसम्पत्त्या शत्रून्निजित्य जित्वरः । विश्रान्तविग्रहो भोगान् धर्मेणार्थेन चान्वभूत् ॥ ७० ॥ स कदाचिद् विलोक्योल्कापातं जातावबोधनः । आपातरमणीयत्वमाकलय्येष्टसम्प"दम् ॥७॥ स्थास्नुबुद्धया विमुग्धत्वादन्वभूवमिमांश्चिरम् । न चेदुल्काप्रपातोऽयं भूयो भ्रान्तिर्भवार्णवे ॥७२॥ इत्यारोप्य सुते राज्यं शिवगुप्तजिनेश्वरम् । प्रपद्य परमं पित्सु रयासीत्संयमद्वयम् ॥ ७३ ॥ समुत्कृष्टाष्टशुद्धीद्धता रुद्धाशुभाश्रवः । क्रमाकालान्तमासाद्य सुसमाहितमानसः ॥ ७४ ॥ निजराज्येन संक्रीतं स्वहस्तप्राप्तमच्युतम् । तुतोष कल्पमालोक्य जितक्र यो हि तुष्यति ॥ ७५ ॥ द्वाविशत्यब्धिमेयायुः प्रान्तेऽसावच्युताधिपः । द्वीपेऽत्र भरते काशी वाराणस्यां महीभुजः ॥ ७६ ॥ इक्ष्वाकोः पद्मनाभस्य रामायाश्चाभवत्सुतः । पद्माभिधानः पद्मादिप्रशस्ताशेषलक्षणः ॥ ७० ॥ त्रिंशद्वर्षसहस्रायुविंशतिधनुस्तनुः । सुरसम्प्रार्थ्यकान्त्यादिः कार्तस्वरविभास्वरः ॥ ७० ॥
दुष्ट मोहरूपी महारिपुको जीतनेवाले तीर्थंकर हुए वे मल्लिनाथ भगवान तुम सबके लिए अनुपम सुख प्रदान करें ।। ६६ ।।
अथानन्तर-मल्लिनाथ जिनेन्द्रके तीर्थमें पद्म नामका चक्रवर्ती हुआ है वह अपनेसे पहले तीसरे भवमें इसी जम्बूद्वीपके मेरुपर्वतसे पूर्वकी ओर सुकच्छ देशके श्रीपुर नगरमें प्रजापाल नामका राजा था। राजाओंमें जितने प्राकृतिक गुण कहे गये हैं वह उन सबका उत्तम आश्रय था । ६७-६८॥ अच्छे राजाके राज्यमें प्रजाको अयुक्ति आदि पाँच तरहकी बाधाओंमेंसे कोई प्रकारकी बाधा नहीं थी अतः समस्त प्रजा सुखसे बढ़ रही थी।। ६६॥ उस विजयीने तीन शक्तिरूप सम्पत्तिके द्वारा समस्त शत्रुओंको जीत लिया था, समस्त युद्ध शान्त कर दिये थे और धर्म तथा अर्थके द्वारा समस्त भोगोंका उपभोग किया था॥७० ।। किसी समय उल्कापात देखनेसे उसे आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया। अब वह इष्ट सम्पत्तियोंको आपात रमणीय--प्रारम्भमें ही मनोहर समझने लगा ॥१॥ वह विचार करने लगा कि मैंने मूर्खतावश इन भोगोंको स्थायी समझकर चिरकाल तक इनका उपभोग किया। यदि आज यह उल्कापात नहीं होता तो संसार-सागरमें मेरा भ्रमण होता ही रहता ॥ ७२ ॥ ऐसा विचार कर उसने पुत्रके लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं शिवगुप्त जिनेश्वरके पास जाकर परमपद पानेकी इच्छाले निश्चय और व्यवहारके भेदसे दोनों प्रकारका संयम धारण कर लिया ।। ७३ ॥ अत्यन्त उत्कृष्ट आठ प्रकारकी शुद्धियोंसे उसका तप देदीप्यमान हो रहा था, उसने अशुभ कर्मोका आस्रव रोक दिया था और क्रम-क्रमसे आयुका अन्त पाकर अपने परिणामोंको समाधियुक्त किया था । ७४॥ वह अपने राज्यसे खरीदे एवं अपने हाथसे-पुरुषार्थसे प्राप्त हए अच्युत स्वर्गको देखकर बहुत ही सन्तुष्ट हुआ सो ठीक ही है क्योंकि अल्प मूल्य देकर अधिक मूल्यकी वस्तुको खरीदनेवाला मनुष्य सन्तुष्ट होता ही है ।। ७५ ।। वहाँ बाईस सागरकी उसकी आयु थी। वह अच्युतेन्द्र आयुके अन्तमें वहाँ से च्युत होकर कहाँ उत्पन्न हुआ इसका वर्णन करते हैं
इसी जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें एक काशी नामक देश है । उसकी वाराणसी नामकी नगरीमें इक्ष्वाकुवंशीय पद्मनाभ नामका राजा राज्य करता था। उसकी स्त्रीके पद्म आदि समस्त लक्षणोंसे सहिण पद्म नामका पुत्र हुआ था। तीस हजार वर्षकी उसकी आयु थी, बाईस धनुष ऊँचा शरीर था, वह सुवर्णके समान देदीप्यमान था, और उसकी कान्ति आदिकी देव लोग भी प्रार्थना करते थे
१ मोहरिपुविर्मु-ख०, म०, ग०। २ मुक्तिवादिभिः म । ३ तदवर्तन्त म०, ल०। ४ शत्रु निजिंत्य क०,१०। ५ संपदाम् म०, ल०।६ पत्तुमिच्छुः। ७ तपोरुद्धा क०, घ.।
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