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महापुराणे उत्तरपुराणम्
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विडम्बनमिदं सर्वं प्रकृतं प्राकृतैर्जनैः । निन्दयनिति निर्विद्य सोऽभून्निष्क्रमणोद्यतः ॥ ४२ ॥ तदा मुनयः प्राप्य प्रस्तुतस्तुतिविस्तराः १ । अनुमत्य मतं तस्य ययुः खेन तिरोहिताः ॥ ४३ ॥ तीर्थकृत्स्वपि केषाञ्चिदेवासीदीदृशी मतिः । दुष्करो विषयत्यागः कौमारे महतामपि ॥ ४४ ॥ इति भक्त्या कृतालापा नभोभागे परस्परम् । परनिःक्रान्तकल्याणमहाभिषवणोत्सवम् ॥ ४५ ॥ सोत्सवाः प्रापयन्ति स्म कुमारममरेश्वराः । कुमारोऽपि जयन्ताभिधानं यानमधिष्ठितः ॥ ४६ ॥ गत्वा श्वेतवनोद्यानमुपवासद्वयान्वितः । स्वजन्ममासनक्षत्रदिनपक्षसमाश्रितः ॥ ४७ ॥ कृतसिद्धनमस्कारः परित्यक्तोपधिद्वयः । सायाह्ने त्रिशतैर्भूपैः सह सम्प्राप्य संयमम् ॥ ४८ ॥ संयमप्रत्ययोत्पन्नश्चतुर्थज्ञानभास्वरः । मार्गोऽयमिति सञ्चिन्त्य सम्यग्ज्ञानप्रचोदितः ॥ ४९ ॥ मिथिलां प्राविशत्तस्मै नन्दिषेणनराधिपः । प्रदाय प्रासुकाहारं प्राप द्युन्नद्युतिः शुभम् ॥ ५० ॥ " दिनषट्के ते तस्य छाद्मस्थ्ये प्राक्तने वने । अधस्तरोरशोकस्य त्यक्ताहद्वितयाद् गतेः ॥ ५१ ॥ पूर्वाह्णे जन्मनीवात्राप्यस्य सत्सु दिनादिषु । घातित्रितयनिर्णाशात्केवलावगमोऽभवत् ॥ ५२ ॥ बोधिता इव देवेन्द्राः सर्वे ज्ञानेन तेन ते । सम्भूयागत्य तत्पूजामकुर्वन् सर्ववेदिनः ॥ ५३ ॥ अष्टाविंशतिरस्यासन् विशाखाद्या गणाधिपाः । स्वपश्ञ्चेन्द्रियमानोक्ता मुनयः पूर्वधारिणः ॥ ५४ ॥ शून्यत्रितयरन्धद्विप्रोक्तसङ्ख्यानशिक्षकाः । द्विशतद्विसहस्रोक्ततृतीयावगमस्तुताः ॥ ५५ ॥ तावन्तः पञ्चमज्ञानाः खद्वयाब्ध्येकवादिनः । शून्यद्वयनवद्वयुक्तविक्रियद्धिविभूषिताः ॥ ५६ ॥ साधारण - पामर मनुष्य ही इसे प्रारम्भ करते हैं बुद्धिमान् नहीं। इस प्रकार विवाहकी निन्दा करते हुए वे विरक्त होकर दीक्षा धारण करनेके लिए उद्यत हो गये ।। ३८-४२ ।। उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर विस्तारके साथ उनकी स्तुति की, उनके दीक्षा लेनेके विचारका अनुमोदन किया और यह सब कर वे आकाश मार्गसे अदृश्य हो गये ।। ४३ । अन्य साधारण मनुष्योंकी बात जाने दो तीर्थंकरों में भी किन्हीं तीर्थंकरोंकी ही ऐसी बुद्धि होती है सो ठीक ही है क्योंकि कुमारावस्था में विषयोंका त्याग करना महापुरुषोंके लिए भी कठिन कार्य है ।। ४४ ।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक आकाश में वार्तालाप करते एवं उत्सवसे भरे इन्द्रोंने मल्लिनाथ कुमारको दीक्षाकल्याणकके समय होनेवाला अभिषेक महोत्सव प्राप्त कराया— उनका दीक्षाकल्याणक-सम्बन्धी महाभिषेक किया तथा मल्लिनाथ कुमार भी जयन्त नामक पालकी पर आरूढ़ होकर श्वेतवनके उद्यानमें पहुँचे । वहाँ उन्होंने दो दिनकेउपवासका नियम लेकर अपने जन्मके ही मास नक्षत्र दिन और पक्षका आश्रय ग्रहण कर अर्थात्
गहन सुदी एकादशीके दिन अश्विनी नक्षत्रमें सायंकाल के समय सिद्ध भगवान्को नमस्कार किया, बाह्याभ्यन्तर- दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर दिया और तीन सौ राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया ।। ४५-४८ ।। वे उसी समय संयमके कारण उत्पन्न हुए मन:पर्ययज्ञानसे देदीप्यमान हो उठे । 'यह सनातन मार्ग है' ऐसा विचार कर सम्यग्ज्ञानसे प्रेरित हुए महामुनि मल्लिनाथ भगवान् पारणाके दिन मिथिलापुरीमें प्रविष्ट हुए। वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले नन्दिषेण नामके राजाने उन्हें प्राक आहार देकर शुभ पश्चाश्चर्य प्राप्त किये ।। ४६-५० ।। छद्मस्थावस्थाके छह दिन व्यतीत हो जानेपर उन्होंने पूर्वोक्त वनमें अशोक वृक्षके नीचे दो दिनके लिए गमनागमनका त्याग कर दिया - दो दिन के उपवासका नियम ले लिया। वहीं पर जन्मके समान शुभ दिन और शुभ नक्षत्र आदिमें उन्हें प्रातःकालके समय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंका नाश होनेसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ।। ५१-५२ ।। उसी केवलज्ञानसे मानो जिन्हें प्रबोध प्राप्त हुआ है ऐसे समस्त इन्द्रोंने एक साथ आकर उन सर्वज्ञ भगवान्की पूजा की ॥ ५३ ॥
उनके समवसरण में विशाखको आदि लेकर अट्ठाईस गणधर थे, पाँच सौ पचास पूर्वधारी थे, उनतीस हजार शिक्षक थे, दो हजार दो सौ पूज्य अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, एक हजार चार सौ वादी थे, दो हजार नौ सौ विक्रिया ऋद्धिसे विभूषित थे और एक हजार सात सौ २ विस्तरैः ख०, ग०, क० । १ भास्करः ल० । २ सम्यग्ज्ञाने प्रचोदितः ल० । ३ नन्दिषेणो मराधिपः ख० । ४ दिने षट्के ल० ।
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