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षट्षष्टितमं पर्व
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समागत्य तयोः कृत्वा स्वर्गावतरणोत्सवम् । कल्याणभागिनोः पित्रोर्ययुस्तोषात्स्वमाश्रयम् ॥ २९ ॥ तमादायोदरं तस्या निर्बाधं भासते स्म तत् । संक्रान्तपूर्णशीतांशुसम्मुखीनतलोपमम् ॥ ३० ॥ सुखेन नवमे मासि पूर्णे पूर्णेन्दुभास्वरम् । विभक्तसर्वावयवं सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ ३१ ॥
मार्गशीर्षसितैकादशीदिनेऽश्विनीसङ्गमे । त्रिज्ञानलोचनं देवं तं प्रासूत प्रजावती ॥ ३२ ॥ तदामृताशिनः सर्वे सम्प्राप्य प्राप्तसम्मदाः । तेजःपिण्ड समादाय बालं बालार्कसन्निभम् ॥ ३३ ॥ गत्वाऽचलेशे संस्थाप्य पञ्चमाब्धिपयोजलैः । अभिषिच्य विभूष्योञ्चमल्लिनामानमाजगुः ॥ ३४ ॥ ४ते पुनस्तं समानीय नामश्रावणपूर्वकम् । मातुरङ्के५ व्यवस्थाप्य स्वनिवासान् प्रपेदिरै ॥ ३५ ॥ अरेशतीर्थसन्तानकालस्यान्ते स पुण्यभाक् । सहस्रकोटिवर्षस्य तदभ्यन्तरजीव्यभूत् ॥ ३६ ॥ समानां पञ्चपञ्चाशत् सहस्त्राण्यस्य जीवितम् । पञ्चविंशतिवाणासनोच्छूितेः कनक घतेः ॥ ३७ ॥ शतसंवत्सरे याते कुमारसमये पुरम् । चलत्सितपताकाभिः सर्वत्रोदबद्धतोरणैः ॥ ३८॥ विचित्ररङ्गवल्लीभिविकीर्णकुसुमोत्करैः । निर्जिताम्भोनिधिध्वानैः प्रध्वनत्पठहादिभिः ॥ ३९ ॥ मल्लिनिजविवाहार्थं भूयो वीक्ष्य विभूषितम् । स्मृत्वापराजितं रम्यं विमानं पूर्वजन्मनः ॥ ४० ॥ सा वीतरागता प्रीतिरुजिता 'महिमा च सा । कुतः कुतो विवाहोऽयं सतां लज्जाविधायकः ॥ ४१ ॥
आया है। इधर यह कहकर राजा, रानीको अत्यन्त हर्षित कर रहा था उधर उसके वचनोंको सत्य करते हुए इन्द्र सब ओरसे आकर उन दोनोंका स्वर्गावतरण-गर्भकल्याणकका उत्सव करने लगे। भगवानके माता-पिता अनेक कल्याणोंसे युक्त थे, उनकी अर्चा कर देव लोग बड़े सन्तोषसे अपनेअपने स्थानों पर चले गये ॥ २७-२६ ॥ माताका उदर जिन-बालकको धारण कर बिना किसी बाधाके ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिसमें चन्द्रमाका पूर्ण प्रतिविम्ब पड़ रहा है ऐसा दर्पणका तल ही हो ॥ ३०॥ सुखसे नौ मास व्यतीत होने पर रानी प्रजावतीने मगसिर सुदी एकादशीके दिन अश्विनी नक्षत्र में उस देवको जन्म दिया जो कि पूर्ण चन्द्रमाके समान देदीप्यमान था, जिसके समस्त अवयव अच्छी तरह विभक्त थे, जो समस्त लक्षणोंसे युक्त था और तीन ज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाला था ।। ३१-३२ ।। उसी समय हर्षसे भरे हुए समस्त देव आ पहुँचे और प्रातःकाल के सूर्यके समान तेजके पिण्ड स्वरूप उस बालकको लेकर पर्वतराज सुमेरु पर्वत पर गये। वहाँ उन्होंने जिन-बालकको विराजमान कर क्षीरसागरके दुग्ध रूप जलसे उनका अभिषेक किया, उत्तम आभूषण पहिनाये और मल्लिनाथ नाम रखकर जोरसे स्तवन किया ॥ ३३-३४॥ वे देवलोग जिन-बालकको वहाँसे वापिस लाये और इनका 'मल्लिनाथ नाम है। ऐसा नाम
हे माताकी गोदमें विराजमान कर अपने-अपने स्थानों पर चले गये ॥ ३५॥ अरनाथ तीर्थंकरके बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जानेपर पुण्यवान् मल्लिनाय हुए थे। उनकी आयु भी इसीमें शामिल थी॥ ३६॥ पचपन हजार वर्षकी उनकी श्रायु थी, पञ्चीस धनुष ऊँचा शरीर था, सुवर्णके समान कान्ति थी।। ३७ ॥ कुमारकालके सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान् मल्लिनाथने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाहके लिए सजाया गया है, कहीं चञ्चल सफेद पताकाएँ फहराई गई हैं तो कहीं तोरण बाँधे गये हैं, कहीं चित्र-विचित्र रङ्गावलियाँ निकाली गई हैं तो कहीं फूलोंके समूह बिखेरे गये हैं और सब जगह समुद्रकी गर्जनाको जीतनेवाले नगाड़े आदि बाजे मनोहर शब्द कर रहे हैं। इस प्रकार सजाये हुए नगरको देखकर उन्हें पूर्वजन्मके सुन्दर अपराजित विमानका स्मरण आ गया । वे सोचने लगे कि कहाँ तो वीतरागतासे उत्पन्न हुआ प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा और कहाँ सज्जनोंको लज्जा उत्पन्न करनेवाला यह विवाह ? यह एक विडम्बना है,
१. भागिनः ल । २ संमुखे भवं संमुखीनं दर्पणस्तस्य तलस्योपमा यस्य तत् । ३ माणशीर्षे ल। ४ तैः म०, ल०।५ मातुरङ्गे ल० । ६-नोच्छ्रितः ल० । ७ कनकद्युतिः ल । ८ प्रीतिरुर्जिता महिमा च सा घ०। प्रीतिरुजिता महिमा च सा ख०, ग०। प्रीतिरुजितो महिमा च सः क०म०। प्रीतिस्तजाता महिमे च साल०।
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