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षट्षष्टितमं पर्व
मोहमलममल यो ब्यजेष्टानिष्टकारिणम् । करीन्द्र वा हरिः सोऽय मलिः शल्यहरोऽस्तु नः॥१॥ जम्बूपक क्षिते द्वीपे मेरोः प्राक्कच्छकावती। विषये वीतशोकाख्यपुरे "वैश्रवणायः ॥२॥ महावंशो मही तस्य महागुणमहीयसः। कुम्भकारकरालप्रमृत्नेव वशवर्तिनी ॥३॥ योगस्ताभ्यो महांस्तस्य प्रजानां प्रेमकारिणः । ता यस्मादुपयुज्यन्ते कोशदुर्गबलादिभिः॥४॥ महाभयेषु सन्धत सचिनोति धनं प्रजाः । धत्ते दण्डं च सन्मार्गे सम्प्रवर्तयितुं स ताः ॥५॥ इति प्रवृद्धपुण्यानुभावसम्पादितां श्रियम् । प्रियामिव नवोढा तामुत्प्रीत्यानुभवंश्चिरम् ॥६॥ कदाचित्प्रावृहारम्भे जम्भमाणां वनावलीम् । विलोकितं पुरस्यायादुपशल्यमुदाराधीः ॥७॥ तत्र शाखोपशाखाः स्वाः प्रसार्येव नृपो महान् । अवगाह्य महीं तस्थौ न्यग्रोधः सेवितो द्विजैः ॥८॥ तं विलोक्य महीपालः पश्य पश्यास्य विस्तृतिम् । तुझरवं बद्धमूलत्वं वहन्वेति मामयम् ॥ ९॥ दर्शयमिति साश्चर्य प्रियाणां पार्श्ववर्तिनाम् । गत्वा वनान्तरे भान्वा तेनैवायात् पुनः पथा ॥१०॥ आमूलाद् भस्मितं वीक्ष्य वज्रपातेन त वटम् । कस्यात्र बद्धमूलत्वं कस्य का वात्र विस्तृतिः ॥१॥ कस्य का तुक्ता नाम यद्यस्यापीहशी गतिः । इति चिन्तां समापनः सन्त्रस्तः संमृतिस्थितेः ॥१२॥
जिस प्रकार सिंह किसी हाथीको जीतता है उसी प्रकार जिन्होंने अनिष्ट करनेवाले मोहरूपी मल्लको अमल्लकी तरह जीत लिया वे मल्लिनाथ भगवान् हम सबके शल्यको हरण करनेवाले हों ॥१॥ इसी जम्बूद्वीपमें मेरुपर्वतसे पूर्वकी ओर कच्छकावती नामके देशमें एक वीतशोक नामका नगर है उसमें वैश्रवण नामका उच्च कुलीन राजा राज्य करता था। जिस प्रकार कुम्भकारके हाथमें लगी हुई मिट्टी उसके वश रहती है उसी प्रकार बड़े-बड़े गुणोंसे शोभायमान उस राजाकी समस्त उसके वश रहती थी॥२-३॥ प्रजाका कल्याण करनेवाले उस राजासे प्रजाका सबसे बड़ा योग यह होता था कि वह खजाना किला तथा सेना आदिके द्वारा उसका उपभोग करता था ॥ ४॥ वह किसी महाभयके समय प्रजाकी रक्षा करनेके लिए धनका संचय करता था और उस प्रजाको सन्मार्गमें चलानेके लिए उसे दण्ड देता था ॥५॥ इस प्रकार बढ़ते हुए पुण्यके प्रभावसे प्राप्त हुई लक्ष्मीका वह नव विवाहिता स्त्रीके समान बड़े हर्षसे चिरकाल तक उपभोग करता रहा ॥६॥ किसी एक दिन उदार बुद्धिवाला वह राजा वर्षाके प्रारम्भमें बढ़ती हुई वनावलीको देखनेके लिए नगरके बाहर गया ॥७॥ वहाँ जिस प्रकार कोई बड़ा राजा अपनी शाखाओं और उपशाखाओंको फैलाकर तथा पृथिवीको व्याप्तकर रहता है और अनेक द्विज-ब्राह्मण उसकी सेवा करते हैं उसी प्रकार एक वटका वृक्ष अपनी शाखाओं और उपशाखाओंको फैलाकर तथा पृथिवीको व्याप्तकर खड़ा था एवं अनेक द्विज-पक्षीगण उसकी सेवा करते थे॥८॥ उस वटवृक्षको देखकर राजा समीपवर्ती लोगोंसे कहने लगा कि देखो देखो, इसका विस्तार तो देखो। यह ऊँचाई और बद्धमूलताको धारण करता हुआ ऐसा जान पड़ता है मानो हमारा अनुकरण ही कर रहा हो ॥६॥ इस प्रकार समीपवर्ती प्रिय मनुष्योंको आश्चर्यके साथ दिखलाता हुआ वह राजा दूसरे वनमें चला गया और घूमकर फिरसे उसी मार्गसे वापिस आया ॥१०॥ लौट कर उसने देखा कि वह वटवृक्ष वन गिरनेके कारण जड़ तक भस्म हो गया है। उसे देख कर वह विचार करने लगा कि इस संसारमें मजबूत जड़ किसकी है ? विस्तार किसका है ? और ऊँचाई किसकी है ? जब इस बद्धमूल, विस्तृत और उन्नत वट वृक्षकी ऐसी दशा हो गई तब दूसरेका क्या विचार हो सकता है ? ऐसा विचार करता हुआ वह संसार की स्थितिसे भयभीत हो गया। उसने अपना राज्य पुत्रके लिए दे दिया और श्रीनाग नामक पर्वत
. विश्रवणाइयः ग०।२ चाभर्य ल.३ तेनैवायत् पुरः पथा न. ४ चिन्तासमापनः ।
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