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महापुराणे उत्तरपुराणम्
हलभृत्तद्वियोगेन जातनिर्वेग'सारथिः। शिवघोषयतिं प्राप्य संयम प्रत्यपचत ॥ १९॥ स बाह्याभ्यन्तरं शुद्ध तपः कृत्वा निराकुलः । मूलोतराणि कर्माणि निर्मूल्यावाप निर्वृतिम् ॥ १९॥
वसन्ततिलका जातौ तृतीयजनने धरणीशपुत्रौ
पश्चात्सुरी प्रथमकल्पगतावभूताम् । श्रीनन्दिषेणहलभृत्सुनिशुम्भशत्रुः
षष्ठस्त्रिखण्डधरणीट्सु च पुण्डरीकः ॥ १९२ ॥ इत्या विषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतेऽरतीर्थकरचक्रधर-सुभौमचक्रवर्तिनन्दि
पेणबलदेव-पुण्डरीकार्द्धचक्रवर्तिनिशुम्भनामप्रतिशत्रुपुराणं परिसमाप्त पञ्चषष्टितनं पर्व॥१५॥
उसके वियोगसे नन्दिषेण बलभद्रको बहुत ही वैराग्य उत्पन्न हुआ उससे प्रेरित हो उसने शिवघोष नामक मुनिराजके पास जाकर संयम धारण कर लिया ॥ १६० ॥ उसने निर्द्वन्द्व होकर बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारका शुद्ध तपश्चरण किया और कर्मोकी मूलोत्तर प्रकृतियोंका नाश कर मोक्ष प्राप्त किया ॥ १६१ ॥ ये दोनों ही तीसरे भवमें राजपुत्र थे, फिर पहले स्वर्गमें देव हुए, तदनन्तर एक तो नन्दिषेण बलभद्र हुआ और दूसरा निशुम्भ प्रतिनारायणका शत्रु पुण्डरीक हुआ। यह तीन खण्डके राजाओं-नारायणोंमें छठवाँ नारायण था ॥ १६२।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराण संग्रहमें अरनाथ तीर्थंकर चक्रवर्ती, सुभौम चक्रवर्ती, नन्दिषेण बलभद्र, पुण्डरीक नारायण और
निशुम्भ प्रतिनारायणके पुराणका वर्णन करनेवाला पैंसठवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१ निद का।
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