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पञ्चषष्टितम पर्व
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वैजयन्या बलो देवो लक्ष्मीमत्यामजायत । पुण्डरीकस्तयोरायुः खत्रयत्वेन्द्रियाब्दवत् ॥ १७ ॥ षडविंशतितनत्सेधौ धनुषां नियतायुषोः । स्वतपःसञ्चितात्पुण्यात्काले यात्यायुषोः सुखम् ॥ १७८ ॥ अन्यदोपेन्द्रसेनाख्यमहीडिन्द्रपुराधिपः । पद्मावती सुतां स्वस्य पुण्डरीकाय दत्तवान् ॥ १७९ ॥ अथ दी दुराचारः सुकेतुः प्राक्तनो रिपुः । निजोपार्जितकर्मानुरूपेण भवसन्ततौ ॥१८॥ भान्त्वा क्रमेण सञ्चित्य शुभं तदनुरोधतः । भूत्वा चक्रपुराधीशो वशीकृतवसुन्धरः ॥१८॥ ग्रीष्मार्कमण्डलाभत्वादसोढा परतेजसाम् । तद्विवाहश्रुतेः क्रुद्धः सन्नद्धाशेषसाधनः ॥ १८२ ।। निशुम्भो मारकोऽरीणां नारकेभ्योऽपि निर्दयः। 'प्रास्थिताखण्डविक्रान्तः पुण्डरीकं जिघांसुकः ॥१८३।। युद्धवा बहविधेनामा तेनोयत्तेजसा चिरम् । तच्चक्राशनिघातेन घातितासुरयादधः ॥ १८४॥ तावुभाविव चन्द्राकौं संयुक्तौ लोकपालको । स्वप्रभाक्रान्तदिकचक्रौ पालयित्वा चिरंधराम् ॥ १८५॥ अविभक्तश्रियौ प्रीतिं परमां प्रापतुः पृथक् । व्याप्तचक्षुर्विशेषौ वा रम्यैकविषयेप्सणौ ॥ १८६ ॥ तयोर्भवत्रयायातपरस्परसमुद्भवात् । प्रेम्णस्तृप्तेरयान्नांशमपि तृप्तिर्नृपत्वजा ॥ १८७॥ पुण्डरीकश्चिरं भुक्त्वा भोगांस्तत्रातिसक्तितः । बध्वायु रकं घोरं बह्वारम्भपरिग्रहः ॥१८८ ॥ प्रान्ते रौद्राभिसन्धानाढमिथ्यात्वभावनः । प्राणैस्तमःप्रभां "मृत्वा प्राविशत्पापपाकवान् ॥ १८९ ॥
पर इसी भरत क्षेत्र सम्बन्धी चक्रपुर नगरके स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा वरसेनकी लक्ष्मीमती रानीसे पुण्डरीक नामका पुत्र हुआ था तथा इन्हीं राजाकी दूसरी रानी वैजयन्तीसे नन्दिषेण नामका बलभद्र उत्पन्न हुआ था। उन दोनोंकी आयु छप्पन हजार वर्षकी थी, शरीर छब्बीस धनुष ऊँचा था, दोनों की आयु नियत थी और अपने तपसे सश्चित हुए पुण्यके कारण उन दोनोंकी आयुका काल सुखसे व्यतीत हो रहा था॥ १७४-१५८ ।। किसी एक दिन इन्द्रपुरके राजा उपेन्द्रसेनने अपनी पद्मावती नामकी पत्री पुण्डरीकके लिए प्रदान की ।। १७६ ॥अथानन्तर पहले भवमें जो सुकेत नामका राजा था वह अत्यन्त अहङ्कारी दुराचारी और पुण्डरीकका शत्रु था। वह अपने द्वारा उपार्जित कर्मोके अनुसार अनेक भवोंमें घूमता रहा। अन्तमें उसने क्रम-क्रमसे कुछ पुण्यका सञ्चय किया था उसके अनुरोधसे वह पृथिवीको वश करनेवाला चक्रपुरका निशुम्भ नामका अधिपति हुआ। उसकी आभा ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके मण्डलके समान थी। वह इतना तेजस्वी था कि दूसरेके तेजको बिलकुल ही सहन नहीं करता था। जब उसने पुण्डरीक और पद्मावतीके विवाहका समाचार सुना तो वह बहुत ही कुपित हुआ। उसने सब सेना तैयार कर ली, वह शत्रुओं को मारने वाला था, नारकियों से भी कहीं अधिक निर्दय था, और अखण्ड पराक्रमी था। पुण्डरीकको मारनेकी इच्छासे वह चल पड़ा। जिसका तेज निरन्तर बढ़ रहा है ऐसे पुण्डरीकके साथ उस निशुम्भने चिरकाल तक बहुत प्रकारका युद्ध किया और अन्तमें उसके चक्ररूपी वनके घातसे निष्माण होकर वह अधोगतिमें गया-नरकमें जाकर उत्पन्न हुआ ।। १८०-१८४ ॥ सूर्य चन्द्रमाके समान अथवा मिले हुए दो
पालोंके समान वे दोनों अपनी प्रभासे दिमण्डलको व्याप्त करते हुए चिरकाल तक पृथिवीका पालन करते रहे ॥ १८५॥ वे दोनों ही भाई बिना बाँटी हुई लक्ष्मीका उपभोग करते थे, परस्परमें परम प्रीतिको प्राप्त थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी एक मनोहर विषयको देखते हुए अलगअलग रहनेवाले दो नेत्र ही हों ।। १८६ ।। उन दोनोंकी राज्यसे उत्पन्न हुई तृप्ति, तीन भवसे चले आये पारस्परिक प्रेमसे उत्पन्न होनेवाली तृप्तिके एक अंशको भी नहीं प्राप्त कर सकी थी। भावार्थउन दोनोंका पारस्परिक प्रेम राज्य-प्रेमसे कहीं अधिक था॥१८७॥ पुण्डरीकनेचिरकाल तक भोगभोगे और उनमें अत्यन्त आसक्तिके कारण नरककी भयंकर आयुका बन्ध कर लिया। वह बहत प्रारम्भ और परिग्रहका धारक था, अन्तमें रौद्र ध्यानके कारण उसकी मिथ्यात्व रूप भावना भी जागृत हो उठी जिससे मर कर वह पापोदयसे तमःप्रभा नामक छठवें नरकमें प्रविष्ट हुआ॥१८-१८६ ।।
प्रस्थिताखण्डविक्रान्तिः म०, ल०। २ बहुविधेनासौ तेनोदद्यततेजसा ल०। पातितासा +प्रयात् + अध इतिच्छेदः । ४ नृपत्वजाम् ल०, म014 क्रीत्वा ख०, म । कृत्वा क., प.।
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