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पञ्चषष्टितम पर्व
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अभिभूताखिलारातिरष्टमश्चक्रवतिषु । समा षष्टिसहस्रायुरष्टाविंशतिचापमः ॥ १५२ ॥ जातरूपच्छविः श्रीमानिक्ष्वाकुकुलकेसरी । विराजमानो विस्पष्टचक्रादिशुभलक्षणैः ॥ १५३ ॥ ततो रत्नानि शेषाणि निधयोऽपि नवाभवन् । षटखण्डस्याधिपत्येन प्रादुरासीत्स चक्रभृत् ॥ १५४ ॥ चक्रवतित्वसम्प्राप्यान् भोगान् दशविधांश्विरम् । अन्वभूदिव देवेन्द्रो दिवि दिव्याननारतम् ॥ १५५ ॥ अन्येयुः सूपकारोऽस्य नानाऽमृतरसायनः । 'रसायनाटिकामस्मै मुदाऽदादम्लिकां हितः ॥ १५ ॥ तनामश्रतिमात्रेण तदणस्याविचारकः । तद्वैरिचोदितः' कोपाद् भूपतिस्तमदण्डयत् ॥ १५ ॥ सोऽपि तेनैव दण्डेन नियमाणोऽतितीव्ररुट । वध्यासं नृपमित्यातनिदानः पुण्यलेशतः ॥ १५८ ॥ ज्योतिर्लोकेऽमरो भूत्वा विभङ्गज्ञानवीक्षणः। अनुस्मृत्य रुषा वैरं जिघांसुः स महीपतिम् ॥ १५९ ॥ जिहालोलुपमालक्ष्य सन्त्य वणिगाकृतिम् । सुस्वादुफलदानेन प्रत्यहं तमसेवत ॥ १६०॥ निष्ठिता विफलानीति कदाचित्तेन भाषितः3 | आनेतन्यानि तान्येव गत्वेत्याख्यापोऽपि तम् ॥ १६१ ॥ आनेतुं तान्यशक्यानि प्राङ्मयाराध्य देवताम् । तद्वनस्वामिनी दीर्घ लब्धान्येतानि कानिचित् ॥१६२॥ आसक्तिस्तेषु चेदस्ति देवस्य तद्वनं मया। सह तत्र त्वमायाहि यथेष्ट तानि भक्षय ॥ १६३ ॥ इति प्रलम्भनं तस्य विश्वास्य' प्रतिपन्नवान् । राजा प्रक्षीणपुण्यानां विनश्यति विचारणम्॥१६॥ एतद्राज्य परित्यज्य रसनेन्द्रियलोलुपः । मत्स्यवत्कि विनष्टेति मन्त्रिभिर्वारितोऽप्यसौ ॥ १६५॥
उत्पन्न हुआ था ।। १५१ ॥ यह सुभौम समस्त शत्रओंको नष्ट करनेवाला था और चक्रवर्तियोंमें आठवाँ चक्रवर्ती था। उसकी साठ हजार वर्षकी आयु थी, अट्ठाईस धनुष ऊँचा शरीर था, सुवर्णके समान उसकी कान्ति थी, वह लक्ष्मीमान् था, इक्ष्वाकु वंशका सिंह था-शिरोमणि था, अत्यन्त स्पष्ट दिखनेवाले चक्र आदि शुभ लक्षणोंसे सुशोभित था ॥ १५२-१५३ ॥ तदनन्तर बाकीके रत्न तथा नौ निधियाँ भी प्रकट हो गई इस प्रकार छह खण्डका आधिपत्य पाकर वह चक्रवर्ती के रूपमें
आ॥ १५४॥ जिस प्रकार इन्द्र स्वर्गमें निरन्तर दिव्य भोगोंका उपभोग करता रहता है उसी प्रकार सुभौम चक्रवर्ती भी चक्रवर्ती पदमें प्राप्त होने योग्य दश प्रकारके भोगोंका चिरकाल तक उपभोग करता रहा ।। १५५ ।। सुभौमका एक अमृतरसायन नामका हितैषी रसोइया था उसने किसी दिन बड़ी प्रसन्नतासे उसके लिए रसायना नामकी कढ़ी परोसी ॥ १५६ ॥ सुभौमने उस कढ़ीके गुणोंका विचार तो नहीं किया, सिर्फ उसका नाम सुनने मात्रसे वह कुपित हो गया। इसीके बीच उस रसोइयाके शत्रुने राजाको उल्टी प्रेरणा दी जिससे क्रोधवश उसने उस रसोइयाको दण्डित किया। इतना अधिक दण्डित किया कि वह रसोइया उस दण्डसे म्रियमाण हो गया। उसने अत्यन्त क्रद्ध होकर निदान किया कि मैं इस राजाको अवश्य मारूँगा। थोड़ेसे पुण्यके कारण वह मरकर ज्योतिर्लोकमें विभङ्गावधिज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाला देव हुआ। पूर्व वैरका स्मरण कर वह क्रोधवश राजाको मारनेकी इच्छा करने लगा ।। १५७-१५४॥ उसने देखा कि यह राजा जिह्वाका लोभी है अतः वह एक व्यापारीका वेष रख मीठे-मीठे फल देकर प्रतिदिन राजाकी सेवा करने लगा ।। १६०॥ किसी एक दिन उस देवने कहा कि महाराज ! वे फल तो अब समाप्त हो गये । राजाने कहा कि यदि समाप्त हो गये तो फिरसे जाकर उन्हीं फलोंको ले आओ।। १६१ ।। उत्तरमें देवने कहा कि वे फल नहीं लाये जा सकते। पहले तो मैंने उस वनकी स्वामिनी देवीकी आराधना कर कुछ फल प्राप्त कर लिये थे।। १६२ ।। यदि आपकी उन फलोंमें आसक्ति है-आप उन्हें अधिक पसन्द करते हैं तो आप मेरे साथ वहाँ स्वयं चलिये और इच्छानुसार उन फलोंको खाइये ।।१६।। राजाने उसके मायापूर्ण वचनोंका विश्वास कर उसके साथ जाना स्वीकृत कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि जिनका पुण्य क्षीण हो जाता है उनकी विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है ।। १६४॥ यद्यपि मन्त्रियोंने उस राजाको रोका था कि आप मत्स्यकी तरह रसना इन्द्रियके लोभी हो यह राज्य छोड़
१रसायनाधिकामस्मै म० । रसायनाटिकामस्मै ग० । रसायनाभिधामस्मै ल० । २ चोदितस्तस्मात् क.,०। ३ भाषिते म०, ल०। ४ भवतः। ५ विश्वस्य ल०। ६ विचारणा ल•।
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