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महापुराणे उत्तरपुराणम् तदा साकेतवास्तव्यदेवताक्रन्दन महत् । महीकम्पो दिवा तारादृष्ट्यादिरभवत्पुरे ॥ १३०॥ 'तथागत्य कुमारोऽसौ शाला भोक्तुमुपागतः । तमाहूय निवेश्योच्चैरासने हतभभुजाम् ॥ १३९ ॥ नियुक्ता दर्शयन्ति स्म दन्तांस्तस्यानुभावतः। 3 कलभान्नं तदासंस्ते तदृष्ट्वा परिचारिणः ॥ १४ ॥ व्यजिज्ञपमपं सोऽपि स धृत्वा नीयतामिति । समर्थान्प्राहिणोद् भृत्यांस्तेऽपि तं प्राप्य निष्ठुराः ॥१४१॥ आइतोऽसि महीशेन त्वमेगाश्वित्युदाहरन् । नाहं ययमिवास्यादा जीविकां तत्तदन्तिकीम् ॥ १४२ ॥ किमित्येच्यामि यातेति तजितास्तत्प्रभावतः । भटा भयज्वरप्रस्ता ययुः सर्वे यथायथम् ॥१४३ ॥ श्रुत्वा परशुरामस्तत्क्रुद्ध्वा सनसाधनः । समागतस्तदालोक्य सुभौमोऽभिमुखं ययौ ॥ १४४ ॥ बलं परशुरामः स्वं तेन योद्धं 'सहादिशत् । जन्मप्रभृति तत्पाता भरतव्यन्तराधिपः ।। १४५॥ रक्षित्वाऽस्थात्कुमारं तं तस्मातस्याप्रतो बलम् । स्थातुमक्षममालोक्य स्वयं गजमचोदयत् ॥ १४६ ॥ सहसैव सुभौमस्याप्यभवद् गन्धवारणः । चक्रं च सन्निधौ दिव्यं सार्वभौमत्वसाधनम् ॥ १४७ ॥ सहस्रदेवतारक्ष्य किश्च स्यात् सम्मुखे विधौ । वारणेन्द्र समारुह्य पूर्वादिमिव भास्करः ॥ १४८॥ सहस्त्रारं करे कृत्वा कुमारश्चक्रमाबभौ । तं दृष्ट्वा रुष्टवान् हन्तुं जामदग्न्योऽभ्युपागमत् ॥ १४९ ॥ चक्रेण तं कुमारोऽपि लोकान्तरमजीगमत् । अकरोचान्यसैन्यस्य तदैवाभयघोषणाम् ॥ १५॥
अरेशतीर्थसन्तानकाले द्विशतकोटिषु । स द्वात्रिंशत्सु जातेऽभूत्सुभौमो वत्सरेष्वयम् ॥ १५ ॥ समय अयोध्या नगरमें रहनेवाले देवता बड़े जोरसे रोने लगे, पृथिवी काँप उठी और दिनमें तारे आदि दिखने लगे ।। १३८ ।। सुभौम कुमार भोजन करनेके लिए जब परशुरामकी दानशालामें पहुँचे तो वहांके कर्मचारियोंने बुलाकर उन्हें उच्च आसनपर बैठाया और मारे हुए राजाओंके संचित दाँत दिखलाये परन्तु सुभौमके प्रभावसे वे सब दाँत शालि चावलोंके भातरूपी हो गये। यह सब देखकर वहांके परिचारकोंने राजाके लिए इसकी सूचना दी। राजाने भी 'उसे पकड़कर लाया जावे यह कहकर मजबूत नौकरोंको भेजा। अत्यन्त क्रूर प्रकृतिवाले भृत्योंने सुभौमके पास जाकर कहा कि तुम्हें राजाने बुलाया है अतः शीघ्र चलो। सुभौमने उत्तर दिया कि मैं तुम लोगोंके समान इससे नौकरी नहीं लेता फिर इसके पास क्यों जाऊँ ? तुम लोग जाओ' ऐसा कहकर उसने उनकी तर्जना की, उसके प्रभावसे वे सब नौकर भयरूपी ज्वरसे ग्रस्त हो गये और सब यथास्थान चले गये ।। १३६-१४३ ।। यह सुनकर परशुराम बहुत कुपित हुआ। वह युद्धके सब साधन तैयार कर आ गया। उसे आया देख सुभौम भी उसके सामने गया ॥ १४४॥ परशुरामने उसके साथ युद्ध करनेके लिए अपनी सेनाको आज्ञा दी। परन्तु भरतक्षेत्रके अधिपति जिस ब्यन्तरदेवने जन्मसे लेकर सुभौमकुमारकी रक्षा की थी उसने उस समय भी उसकी रक्षा की अतः परशुरामकी सेना उसके सामने नहीं ठहर सकी। यह देखकर परशुरामने सुभौमकी ओर स्वयं अपना हाथी बढ़ाया परन्तु उसी समय सुभौमके भी एक गन्धराज-मदोन्मत्त हाथी प्रकट हो गया। यही नहीं, एक हजार देव जिसकी रक्षा करते हैं और जो चक्रवर्तीपनाका साधन है ऐसा देवोपनीत चक्ररत्न भी पास ही प्रकट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि भाग्यके सन्मुख रहते हुए क्या नहीं होता? जिस प्रकार पूर्वांचल पर सूर्य आरूढ़ होता है उसी प्रकार उस गजेन्द्रपर आरूढ़ होकर सुभौमकुमार निकला । वह हजार आरेवाले चकरलको हाथमें लेकर बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था। उसे देखकर परशुराम बहुत ही कुपित हुआ और सुभौमको मारनेके लिए सामने आया ॥ १४५-१४६ ॥ सुभौम कुमारने भी चक्र द्वारा उसे परलोक भेज दिया-मार डाला तथा वाकी बची हुई सेनाके लिए उसी समय अभयघोषणा कर दी ।। १५० ।।
श्री अरनाथ तीर्थंकरके बाद दो सौ करोड़ बत्तीस वर्ष व्यतीत हो जानेपर सुभौम चक्रवर्ती
१ तदागत्य म०, ल०। २ समाहूय क०, प० । ३ शालिभोजनम् । ४ समागतं तदालोक्य म.। समागम तदालोक्य ल०। ५ परशुरामस्तत्तेन ल०। ६ समादिशत् ख०, ग०, म०। ७ पूर्वेन्द्र इव ल.। . पोषणम् क.,ख,ग०।
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