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महापुराणे उत्तरपुराणम्
"पृष्ट्वा विज्ञाय तत्सर्व सकोपौ शोकनिर्भराम् । निर्वाप्य युक्तिमद्वाग्भिस्तौ नैसर्गिकविक्रमौ ॥ १०८ ॥ ध्वजीकृत निशातोग्रपरशू यमसन्निभौ । गोग्रहे मरणं पुण्यहेतुरित्यविगानतः ।। १०९ ।। श्रूयते तथैवास्तां कः सहेत पितुर्वधम् । इत्युक्त्वानुगताशेषस्त्रिद्यन्मुनि कुमारकौ ॥ ११० ॥ तद्गतं मार्गमन्वेत्य साकेतनगरान्तिकम् । सम्प्राप्य कृतसंग्रामौ कृतवीरेण भूपतिम् ॥ १११ ॥ सहस्रबाहुमाहत्य सायाह्वेऽविक्षतां पुरम् । हालाहलोपमान्याशु उघोरांहः स्फूर्जितान्यलम् ॥ ११२ ॥ फलन्त्यकार्यचर्याणां दुःसहां दुःखसन्ततिम् । सहस्रबाहुसन्तान निःशेषीकरणोत्सुकम् ॥ ११३ ॥ ज्ञात्वा परशुरामीयमभिप्रायं महीपतिः । भूपालचरदेवेन निदानविषदूषितात् ॥ ११४ ॥ समुद्भूतेन तपसो महाशुक्रेऽत्र जन्मिना । राज्ञीं सगर्भा चित्रमतीं तां शाण्डिल्यतापसः ॥ ११५ ॥ तदग्रजः समादाय गत्वा विज्ञातचर्यया । स सुबन्ध्वाख्यनिर्ग्रन्थमुनेरावेद्यवृत्तकम् ॥ ११६ ॥ तत्समीपे निधायार्य मठे मे नास्ति कश्चन । तत्र गत्वा समीक्ष्यागमिष्याम्येषाऽत्र तिष्ठतु ॥ ११७ ॥ देवीति गतवांस्तस्मात्तदैवासूत सा सुतम् । तदानीमेव तं तत्र भविष्यद्भरताधिपः ॥ ११८ ॥ बालकोऽयमिति ज्ञानात्स्वीचक्र र्वनदेवताः । ताभिः प्रपात्यमानोऽयमनाबाधमवर्द्धत ॥ ११९ ॥ दिनानि कानिचिन्नीत्वा महीमाश्लिष्य जातवान् । बालकोऽयं कथम्भावी भट्टारक, शुभाशुभम् ॥ १२० ॥ अनुगृह्यास्य वक्तव्यमिति देव्योदितो मुनिः । एष चक्री भवेदम्ब वत्सरे षोडशे ध्रुवम् ॥ १२१ ॥ साग्निचुल्लीगतस्थूल किलासघृतमध्यगान् । उष्णापूपानुपादाय भक्षयिष्यति बालकः ॥ १२२ ॥ युक्तिपूर्ण वचनोंसे संतुष्ट किया फिर तीक्ष्ण फरशाको ध्वजा बनानेवाले, यमतुल्य दोनों भाइयोंने परस्पर कहा कि गायकें ग्रहणमें यदि मरण भी हो जाय तो वह पुण्यका कारण है ऐसा शास्त्रोंमें सुना जाता है अथवा यह बात रहने दो, पिताके मरणको कौन सह लेगा ? ऐसा कहकर दोनों ही भाई चल पड़े । स्नेहसे भरे हुए समस्त मुनिकुमार उनके साथ गये ।। १०७ - ११० ।। राजा सहस्रबहु और कृतवीर जिस मार्गसे गये थे उसी मार्गपर चलकर वे अयोध्यानगर के समीप पहुँच गये । वहाँ कृतवीर के साथ संग्रामकर उन्होंने राजा सहस्रबाहुको मार डाला और सायंकाल के समय नगरमें प्रवेश किया सो ठीक ही है क्योंकि जो अकार्य में प्रवृत्ति करते हैं उनके लिए हलाहल विषके समान भयंकर पापों के परिपाक असह्य दुःखोंकी परम्परा रूप फल शीघ्र ही प्रदान करते हैं। इधर रानी चित्रमतीके बड़े भाई शाण्डिल्य नामक तापसको इस बातका पता चला कि परशुराम, सहस्रबाहुकी समस्त सन्तानको नष्ट करनेके लिए उत्सुक है और रानी चित्रमती, निदानरूपी विषसे दूषित तपके कारण महाशुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए राजा भूपालके जीव स्वरूप देवके द्वारा गर्भवती हुई है अर्थात् उक्त देव रानी चित्रमतीके गर्भमें आया है। ज्यों ही शाण्डिल्यको इस बातका पता चला त्यों ही वह बहन चित्रमतीको लेकर अज्ञात रूपसे चल पड़ा और सुबन्धु नामक निर्मन्थ मुनिके पास जाकर उसने सब समाचार कह सुनाये । 'हे आर्य ! मेरे मठमें कोई नहीं है इसलिए मैं वहाँ जाकर वापिस आऊंगा । जब तक मैं वापिस आऊं तब तक यह देवी यहाँ रहेगी' यह कहकर वह चित्रमतीको सुबन्धु मुनिके पास छोड़कर अन्यत्र चला गया ।। १११-११७ ॥
इधर रानी चित्रमतीने पुत्र उत्पन्न किया । यह बालक भरत क्षेत्रका भावी चक्रवर्ती है यह विचारकर वन-देवताओंने उसे शीघ्र ही उठा लिया। इस प्रकार वन- देवियाँ जिसकी रक्षा करती हैं ऐसा वह बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगा ।। ११८ - ११६ ॥ जब कुछ दिन व्यतीत हो गये तब एक दिन रानीने मुनिसे पूछा कि हे स्वामिन्! यह बालक पृथिवीका आश्लेषण करता हुआ उत्पन्न हुआ था अतः अनुग्रह करके इसके शुभ-अशुभका निरूपण कीजिये । इस प्रकार रानीके कहने पर मुनि कहने लगे कि हे अम्ब ! यह बालक सोलहवें वर्ष में अवश्य ही चक्रवर्ती होगा और चक्रवर्ती होने का यह चिह्न होगा कि यह बालक अभिसे जलते हुए चूल्हेके ऊपर रखी कढ़ाईके घीके मध्यमें
१ दृष्ट्वा ल० । २ पुरीम् ल० । ३ घोराहः स्फूर्जितान्यलम् ल० । ४ चित्रमतिम् ल० । ५ 'तत्र गत्वा समागमिष्याम्येषा त्वत्र तिष्ठतु' ल० । ६ स्थाल ख० । ७ उष्णान् पूपान् समादाय, क०, ग० । उष्णानपूपानादाय ख० । उष्णान् पूपानुपादाय ल०, म० ।
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