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पश्चषष्टितम पर्व रष्टा यथोपचारेण मुनिं भर्तृप्रचोदिता । पूज्य ! महानकाले मे दत्तं किं भवता धनम् ॥ ९ ॥ बदेत्याह ततस्तेन मया दत्तं न किञ्चन । इदानीं दीयते भद्रे त्रिजगत्स्वपि दुर्लभम् ॥ १५ ॥ गृहाण येन प्राप्नोषि स्वं सुखानां परम्पराम् । सम्यक्त्वं व्रतसंयुक्तं शीलमालासमुज्ज्वलम् ॥ ९६ ॥ इत्युक्त्वा काललमध्येव तद्वाचा चोदिता सती। सम्यग्गृहीतमित्याख्यन्मुनीशश्वातितुष्टवान् ॥९७ ॥ कामधेन्वभिधा विद्यामीप्सितार्थप्रदायिनीम् । तस्यै विश्राणयाश्चक्रे समन् परशुं च सः॥ १८॥ अथान्यदा ययौ साई कृतवीरेण तत्पिता । तपोवनं सनाभिस्वाद् भुक्त्वा गन्तव्यमित्यमुम् ॥ ९९ ॥ सहस्रबाहुं सम्भाष्य जमदग्निरभोजयत् । महाराजकुलेऽप्येषा सामग्री नास्ति भोजने ॥१०॥ तपोवननिविष्टानामागता भवतां कुतः । इति स्वमातुरनुजामपाक्षीद्रेणुकीं मिथः ॥ १.१॥ कृतवीरोऽब्रवीत्साऽपि तद्विद्यालम्भनादिकम् । सोऽपि मोहोदयाविष्टस्तां धेनुमकृतज्ञकः ॥ १०२॥ होमधेनुरियं तात वर्णाश्रमगुरोस्तव । याचनैषा न युक्तेति तदुक्त्या कोपवेगतः ॥ १०३ ॥ पराद्धं यद्धनं लोके तद्योग्यं पृथिवीभुजाम् । न धेनुरीदृशी भोग्या कन्दमूलफलाशिभिः ॥ १.४॥
इत्यस्या धेनुमादाय हठात्कारेण गच्छतः । ४अवस्थित पुरस्तातं जमदग्निं महीपतिः॥ १.५॥ हत्वा स्वमार्गमुल्लङध्य कुमार्गोऽभूत्पुरोन्मुखः । रुदन्ती रेणुकीं भर्तृमरणात् प्रहतोदरीम् ॥ १ ॥
अथ पुत्रौ वनारपुष्पकन्दमूलफलादिकम् । आदायालोक्य सम्प्राप्तौ किमेतदिति विस्मयात् १०७॥ काल सुखसे बीत रहा था। एक दिन अरिञ्जय नामके मुनि जो रेणुकीके बड़े भाई थे उसे देखनेकी . इच्छसेि उसके घर आये ।। ६३ ॥ रेणुकीने विनयपूर्वक मुनिके दर्शन किये। तदनन्तर पतिसे प्रेरणा पाकर उसने मुनिसे पूछा कि हे पूज्य ! मेरे विवाहके समय आपने मेरे लिए क्या धन दिया था ?
सो कहो, रेणुकीके ऐसा कहने पर मुनिने कहा कि उस समय मैंने कुछ भी नहीं दिया था। हे भद्रे ! अब ऐसा धन देता हूँ जोकि तीनों लोकोंमें दुर्लभ है। तू उसे ग्रहण कर। उस धनके द्वारा तू सुखोंकी परम्परा प्राप्त करेगी। यह कहकर उन्होंने व्रतसे संयुक्त तथा शीलकी माला उज्ज्वल सम्यक्त्वरूपी धन प्रदान किया और काललब्धिके समान उनके वचनोंसे प्रेरित हुई रेणुकीने कहा कि मैंने आपका दिया सम्यग्दर्शन रूपी धन ग्रहण किया। मु हुए। उन्होंने मनोवांछित पदार्थ देनेवाली कामधेनु नामकी विद्या और मन्त्र सहित एक फरशा भी उसके लिए प्रदान किया ॥१५-६॥ किसी दूसरे दिन पुत्र कृतवीरके साथ उसका पिता सहस्रबाहु उस तपोवनमें आया। भाई होनेके कारण जमदग्निने सहस्रबाहुसे कहा कि भोजन करके जाना चाहिये। यह कह जमदग्निने उसे भोजन कराया। कृतवीरने अपनी माँकी छोटी बहिन पूछा कि भोजनमें ऐसी सामग्री तो राजाओंके घर भी नहीं होती फिर तपोवनमें रहनेवाले आप लोगोंके लिए यह सामग्री कैसे प्राप्त होती है ? उत्तरमें रेणुकीने कामधेनु विद्याकी प्राप्ति आदिका सब समाचार सुना दिया। मोहके उदयसे आविष्ट हुए उस अकृतज्ञ कृतवीरने रेणुकीसे वह कामधेनु विद्या माँगी। रेणुकीने कहा कि हे तात! यह कामधेन तुम्हारे वर्णाश्रमोंके गुरु जमदग्निकी होमधेनु है अतः तुम्हारी यह याचना उचित नहीं है। रेणुकीके इतना कहते ही उसे क्रोध आ गया। वह क्रोधके वेगसे कहने लगा कि संसारमें जो भी श्रेष्ठ धन होता है वह राजाओंके योग्य होता है। कन्द मूल तथा फल खानेवाले लोगोंके द्वारा ऐसी कामधेनु भोगने योग्य नहीं हो सक्ती ॥६१०४॥ ऐसा कह कर वह कामधेनुको जबरदस्ती लेकर जाने लगा तब जमदग्नि ऋषि रोकनेके लिए उसके सामने खड़े हो गये। कुमार्गगामी राजा कृतवीर जमदग्निको मारकर तथा अपना मार्ग उल्लंघकर नगरकी ओर चला गया। इधर कृशोदरी रेणुकी पतिकी मृत्युसे रोने लगी। तदनन्तर उसके दोनों पुत्र जब फूल, कन्द, मूल तथा फल आदि लेकर वनसे लौटे तो यह सब देख आश्चर्यसे पछने लगे कि यह क्या है ॥१०५-१०६॥ सब बातको ठीक-ठीक समझ कर उन्हें को गया। स्वाभाविक पराक्रमको धारण करनेवाले दोनों भाइयोंने पहले तो शोकसे भरी हुई माताको
१ यष्ट्वा क०, प० । २ रेणुकाम ल०, क०,०।३ इत्युक्त्वा म०, ०। ४ अङ्कस्थितं ल । ५ परोन्मुखः क०, घ०। ६ रेणुकां ख०।
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