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पश्चषष्टितम पर्व
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तस्मादुपेहि मोक्षस्य मार्गमित्यब्रवीत्ततः । तापसानां तपः कस्मादशुद्धमिति संशयात् ॥६६॥ अन्वयुङक स तं सोऽपि दर्शयाम्यहि भूतलम् । इत्यन्योन्य समालोच्य कीचकद्वन्द्वतागतौ ॥ १७ ॥ जमदग्निमुनेर्दीर्घ श्मश्वाश्रयमुपाश्रितौ । काञ्चित् कालकलां स्थित्वा सद्दष्टिः सुरकीचकः ॥ ६८ ॥ समभाषत मायाज्ञो ज्योतिष्कामरकीचकीम् । एतद्वनान्तरं गत्वा प्रत्यायास्याम्यहं प्रिये ॥ ६९ ॥ प्रतीक्षस्वान मां स्थित्वेत्यसौ चाहागर्म तव । न श्रद्दधामि मे देहि शपथं यदि यास्यसि ॥ ७० ॥ इत्यतः सोऽब्रवीद् हि पातकेषु किमिच्छसि । पञ्चसु त्वमहं तस्मिन् दास्यामि तदिति स्फुटम् ॥ ७१॥ साप्याह तेषु मे वाञ्छा कस्मिंश्चिन्नैव देहि मे । तापसस्यास्य यास्यामि गतिं नैष्याम्यहं यदि ॥७२॥ इतीमं शपथं गन्तुमुञ्चामि त्वां प्रियेति 'ताम् । तच्छू त्वा कीचकः प्राह मुक्त्वैन किश्चिदीप्सितम् ॥७३॥ ब्रह्मन्यमिति तद्वन्दविसंवाद स तापसः। श्रुत्वा क्रोधेन सन्तप्तो विधूणितविलोचनः ॥ ७४ ॥ हस्ताभ्यां हन्तुमु क्रौर्याद् गृहीत्वा निश्चलं द्विजौ । मदुद्धरतपः प्राप्य भाविलोकोऽनभीप्सितः॥७५॥ युवाभ्यां केन तद्वाच्यमि त्याहातः खगोऽब्रवीत् । मागमः कोपमेतेन सौजन्य तव नश्यति ॥ ७६ ॥
यदातचनतक्रेण पयोऽल्पेन न किं क्षतिम् । शृणुते दुर्गतेर्हेतु चिरं घोरं तपस्यतः ॥ ७ ॥ कौमारब्रह्मचारित्वं तव सन्तन्तिविच्छिदे । सन्तानघातिनः पुंसः का गतिर्नरकाद्विना ॥ ७८ ॥ अपुत्रस्य गतिर्नास्तीत्यार्ष किं न त्वया श्रुतम् । कुतोऽविचारयन क्लिश्नासि जडधीरिति ॥ ७९ ॥
मैं सम्यक्त्वके कारण उत्कृष्ट देवपर्यायको प्राप्त हुआ हूं ॥ ६५ ॥ इसलिए तुम मोक्षका मार्ग जो सम्यग्दर्शन है उसे धारण करो। जब दृढ़ग्राहीका जीव यह कह चुका तब हरिशर्माके जीवने कुछ संशय रखकर उससे पूछा कि तापसियोंका तप अशुद्ध क्यों है ? उसने भी कहा कि तुम पृथिवी तलपर चलो मैं सब दिखाता है। इस प्रकार सलाहकर दोनोंने चिड़ा और चिडियाका रूप बना लिया ॥ ६६-६७ ।। पृथिवीपर आकर वे दोनों ही जमदग्नि मुनिकी बड़ी-बड़ी दाँडी और मूंछमें रहने लगे। वहाँ कुछ समयतक ठहरनेके बाद मायाको जाननेवाला सम्यग्दृष्टि चिड़ाका जीव, चिड़ियाका रूप धारण करनेवाले ज्योतिषी देवसे बोला कि हे प्रिये ! मैं इस दूसरे वनमें जाकर अभी वापिस आता हूं मैं जब तक आता हूँ तबतक तुम यहीं ठहरकर मेरी प्रतीक्षा करना। इसके उत्तरमें चिड़ियाने कहा कि मुझे तेरा विश्वास नहीं है यदि तू जाता ही है तो सौगन्ध दे जा ॥ ६८-७०॥ तब वह चिड़ा कहने लगा कि बोल तू पाँच पापोंमेंसे किसे चाहती है मैं तुझे उसीकी सौगन्ध दे जाऊँगा ।। ७१ ॥ उत्तरमें चिड़िया कहने लगी कि पाँच पापोंमेंसे किसीमें मेरी इच्छा नहीं है। तू यह सौगन्ध दे कि यदि मैं न आऊँ तो इस तापसकी गतिको प्राप्त होऊं ॥ ७२ ॥ हे प्रिय ! यदि तू मुझे यह सौगन्ध देगा तो मैं तुझे अन्यत्र जानेके लिए छोडूंगी अन्यथा नहीं । चिड़ियाकी बात सुनकर चिड़ाने कहा कि तू यह छोड़कर और जो चाहती है सो केह, मैं उसकी सौगन्ध दूंगा। इस प्रकार चिड़ा और चिड़ियाका वार्तालाप सुनकर वह तापस क्रोधसे संतप्त हो गया, उसकी आँखें घूमने लगी, उसने करता वश दोनों पक्षियोंको मारनेके लिए हाथसे मजबूत पकड़ लिया, वह कहने कि मेरे कठिन तपसे जो भावी लोक होने वाला है उसे तुम लोगोंने किस कारणसे पसन्द नहीं किया ? यह कहा जाय । तापसके ऐसा कह चुकनेपर चिड़ाने कहा कि आप क्रोध न करें इससे आपकी सज्जनता नष्ट होती है ।।७३-७६ ॥ क्या थोड़ी सी जामिनकी छाँचसे दूध नष्ट नहीं हो जाता ? यद्यपि आप चिरकालसे घोर तपश्चरण कर रहे हैं तो भी आपकी दुर्गतिका कारण क्या है ? सो सुनिये ॥ ७७ ॥ आप जो कुमार कालसे ही ब्रह्मचर्यका पालन कर रहे हैं वह संतानका नाश करनेके लिए है । संतानका घात करनेवाले पुरुषकी नरकके सिवाय दुसरी कौन-सी गति हो सकती है ? ।। ७८ ॥ अरे 'पुत्र रहित मनुष्यकी कोई गति नहीं होती' यह आर्षवाक्य-वेदवाक्य क्या आपने नहीं सुना ? यदि सुना है तो फिर बिना विचार किये ही क्यों इस तरह दुर्बुद्धि होकर क्लेश
१द्वन्द्वमागतौ ल०। २ दीर्घश्मश्वाश्रा-क०,ख०, घ० । दीर्घ स्मृत्वाश्रय ख०।३ तम् म०, ल०। ४-मुत्कोपाद् ल०। ५-मित्यहोतः खगोऽ-ल०। ६ (श्रातञ्चनतक्रण अमृततऋण दुग्धस्य दधिकरणहेतुभूत
तक्रण, इति 'क' पुस्तके टिप्पणी) Jain Education International
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