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पचषष्टितमं पर्व
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लक्ष त्रयं विनिर्दिष्टा देवाः पूर्वोक्तमानकाः । तिर्यग्भेदाश्च सङ्ख्याता 'वृतो द्वादशभिर्गणैः ॥ ४४ ॥ एभिर्धर्मोपदेशार्थं व्यहरद्विषयान् सुधीः । मासमात्रावशेषायुः सम्मेदगिरिमस्तके ॥ ४५ ॥ सहस्रमुनिभिः सार्द्धं प्रतिमायोगमास्थितः । चैत्रकृष्णान्तरेवत्यां पूर्वरात्रेऽगमच्छिवम् ॥ ४६ ॥ तदाऽऽगत्य सुराधीशाः कृतनिर्वाणपूजनाः । स्तुत्वा स्तुतिशतैर्भक्त्या स्वं स्वमोकः समं ययुः ॥ ४७ ॥ शार्दूलविक्रीडितम्
त्यक्त' येन कुलालचक्रमिव तच्चक्रं धराचक्रचित्,
श्रीश्चासौ घटदासिकेव परमश्रीधर्म चक्रेप्सया ।
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युष्मान्भक्तिभरानतान्स दुरितारातेरवध्वंसकृत्,
पायाद्भव्यजनानरो जिनपतिः संसारभीरून् सदा ॥ ४८ ॥ वसन्ततिलकावृत्तम्
क्षुत्तृट्भयादिगुरुकर्मकृतोरुदोषा
यो लब्धवांस्त्रिभुवनैकगुरुर्गरीया
नष्टादशापि सनिमित्तमपास्य शुद्धिम् ।
नष्टादशो दिशतु शीघ्रमरः शिवं वः ॥ ४९ ॥
शार्दूलविक्रीडितम्
प्राग्योऽभून्नृपतिर्महान् धनपतिः पश्चाद्व्रतानां पतिः,
स्वर्गा विलसज्जयन्तजपतिः प्रोद्यत्सुखानां पतिः ।
षट्खण्डाधिपतिश्चतुर्दशलसदनैनिधीनां पतिः,
त्रैलोक्याधिपतिः पुनात्वरपतिः सन् स श्रितान् वश्चिरम् ॥५०॥ अथास्मिन्नेव तीर्थेऽभूत्सुभौमो नाम चक्रभृत् । तृतीये जन्मन्यन्त्रैव भरतेऽसौ भुवः पतिः ॥ ५१ ॥ अरनाथने धर्मोपदेश देनेके लिए अनेक देशोंमें विहार किया । जब उनकी आयु एक माहकी बाकी रह गई तब उन्होंने सम्मेदाचलकी शिखरपर एकहजार मुनियोंके साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया तथा चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्रमें रात्रिके पूर्वभागमें मोक्ष प्राप्त कर लिया ||४३-४६ ॥ उसी समय इन्द्रोंने आकर निर्वाणकल्याणककी पूजा की । भक्तिपूर्वक सैकड़ों स्तुतियोंके द्वारा उनकी स्तुति की, और तदनन्तर वे सब अपने-अपने स्थानोंपर चले गये ॥ ४७ ॥
जिन्होंने परम लक्ष्मी और धर्मचक्रको प्राप्त करनेकी इच्छासे पृथिवीमण्डलको सचित करनेवाला अपना सुदर्शनचक्र कुम्भकारके चक्रके समान छोड़ दिया और राज्य लक्ष्मीको घटदासी ( पनहारिन) के समान त्याग दिया । तथा जो पापरूपी शत्रुका विध्वंस करनेवाले हैं ऐसे अरनाथ जिनेन्द्र भक्तिके भारसे नत्रीभूत एवं संसारसे भयभीत तुम सब भव्य लोगोंकी सदा रक्षा करें ॥४८ || क्षुधा, तृषा, भय आदि बड़े-बड़े कर्मोंके द्वारा किये हुए क्षुधा तृषा आदि अठारहों दोषोंको उनके निमित्त कारणों के साथ नष्टकर जिन्होंने विशुद्धता प्राप्त की थी, जो तीनों लोकोंके एक गुरु थे तथा अतिशय श्रेष्ठ थे ऐसे अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ तुम लोगोंको शीघ्र ही मोक्ष प्रदान करें ॥ ४६ ॥ जो पहले धनपति नामके बड़े राजा हुए, फिर व्रतोंके स्वामी मुनिराज हुए, तदनन्तर स्वर्गके अग्र भागमें सुशोभित जयन्त नामक विमानके स्वामी सुखी अहमिन्द्र हुए, फिर छहों खण्डके स्वामी होकर चौदह रत्नों और नौ निधियोंके अधिपति - चक्रवर्ती हुए तथा अन्त में तीनों लोकोंके स्वामी अनाथ तीर्थकर हुए वे अतिशय श्रेष्ठ अठारहवें तीर्थंकर अपने श्राश्रित रहनेवाले तुम सबको चिरकालतक पवित्र करते रहें ॥ ५० ॥
अथानन्तर- इन्हीं अरनाथ भगवान् के तीर्थमें सुभौम नामका चक्रवर्ती हुआ था । वह तीसरे
१ वृत्तो ल० । २ मधु । ३. तृतीय ल० ।
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