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महापुराणे उत्तरपुराणम्
अभूद्गुणमयः किं वेत्याशङ्कां 'सानयन् जनान् । अवर्द्धत समं लक्ष्म्या बालकल्पद्रमोपमः ॥ २८ ॥ तस्य शून्यत्रिकैकद्विप्रमाणामितवत्सरैः । गते कुमारकालेऽभूद्राज्यं माण्डलिकोचितम् ॥ २९ ॥ सावत्येव गते काले तस्मिन् सकलचक्रिता । भोगान्समन्वभूद्भागे तृतीये स निजायुषः ॥ ३० ॥ कदाचिच्छारदाम्भोदविलय प्रतिलोकनात् । समुद्भूतस्वजन्मोपयोगबोधिः सुरोत्तमैः ॥ ३१ ॥ प्रबोधितोऽनुवादेन दत्वा राज्यं स्वसूनवे । अरविन्दकुमाराय सुरैरूढामधिष्ठितः ॥ ३२ ॥ शिबिकां वैजयन्त्याख्यां सहेतुकवनं गतः । दीक्षां षष्ठोपवासेन रेवत्यां दशमीदिने ॥ ३३ ॥ शुक्लेऽगान्मार्गशीर्षस्य सायाह्ने भूभुजां सह । सहस्रेण चतुर्ज्ञानधारी च समजायत ॥ ३४ ॥ सम्यगेवं तपः कुर्वन् कदाचित्पारणादिने । प्रायाच्चक्रपुरं तस्मै दत्वानमपराजितः ॥ ३५ ॥ महीपतिः सुवर्णाभः प्रापदाश्चर्यपञ्चकम् । छास्थ्येनागमंस्तस्य मुनेर्वर्षाणि षोडश ॥ ३६ ॥ ततो दीक्षावने मासे कार्तिके द्वादशीदिने । रेवत्यां शुक्लपक्षेऽपराह्ने चूततरोरधः ॥ ३७ ॥ षष्ठोपवासेनाहत्य घातीन्यार्हन्त्यमासदत् । सुराश्चतुर्थकल्याणे सम्भूयैनमपूजयन् ४ ॥ ३८ ॥ कुम्भार्याचा गणेशोऽस्य त्रिंशत्पूर्वाङ्गवेदिनः । शून्यैकषट् मिताः ज्ञेया शिक्षकाः सूक्ष्मबुद्धयः ॥ ३९ ॥ पञ्चषयष्टपञ्चाग्निमिताविज्ञानधारिणः । शून्यद्वयाष्टपक्षोकाः केवलज्ञानलोचनाः ॥ ४० ॥ तावन्तः खद्वयाग्न्यब्धिनिमिता " विक्रियद्धिकाः । करणेन्द्रियखद्वयुक्ता मनःपर्ययबोधनाः ॥ ४१ ॥ शतानि षट्सहस्रं च तत्रानुतरवादिनः । सर्वे ते सन्चिताः पञ्चाशत् सहस्राणि संयताः ॥ ४२ ॥ ज्ञेयाः षष्टिसहस्राणि यक्षिलाप्रमुखार्थिकाः । लक्षाः षष्टिसहस्राणि श्रावका श्राविकाश्च ताः ॥ ४३ ॥
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ही हैं। इस प्रकार लोगोंको शङ्का उत्पन्न करते हुए, बाल कल्पवृक्षकी उपमा धारण करनेवाले भगवान् लक्ष्मी के साथ-साथ वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे ।। २४-२८ ।। इस प्रकार कुमार अवस्थाक्रे इक्कीस हजार वर्ष बीत जानेपर उन्हें मण्डलेश्वरके योग्य राज्य प्राप्त हुआ था और इसके बाद जब इतना ही काल और बीत गया तब पूर्ण चक्रवर्तीपद प्राप्त हुआ था। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयुका तीसरा भाग बाकी रह गया तब किसी दिन उन्हें शरदऋतुके मेघोंका अकस्मात् विलय हो जाना देखकर अपने जन्मको सार्थक करनेवाला आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय लौकान्तिक देवोंने उनके विचारोंका समर्थनकर उन्हें प्रबोधित किया और वे अरविन्दकुमार नामक पुत्रके लिए राज्य देकर देवोंके द्वारा उठाई हुई वैजयन्ती नामकी पालकीपर सवार हो सहेतुक वनमें चले गये। वहाँ तेलाका नियम लेकर उन्होंने मगसिर शुक्ला दशमीके दिन रेवती नक्षत्र में सन्ध्याके समय एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा धारण करते ही वे चार ज्ञानके धारी हो गये ॥ २६-३४ ॥ इस प्रकार तपश्चरण करते हुए वे किसी समय पारणाके दिन चक्रपुर नगरमें गये वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले राजा अपराजितने उन्हें आहार देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस तरह मुनिराज अरनाथके जब छद्भस्थ अवस्थाके सोलह वर्ष व्यतीत हो गये ।। ३५-३६ ।। तब वे दीक्षावनमें कार्तिक शुक्ल द्वादशीके दिन रेवती नक्षत्रमें सायंकालके समय आम्रवृक्षके नीचे तेलाका नियम लेकर विराजमान हुए। उसी समय घातिया कर्म नष्टकर उन्होंने अर्हन्तपद प्राप्त कर लिया। देवोंने मिलकर चतुर्थ कल्याणकमें उनकी पूजा की ।। ३७-३८ ॥ कुम्भार्यको आदि लेकर उनके तीस गणधर थे, छहसौ दश ग्यारह अंग चौदह पूर्वके जानकार थे, पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस सूक्ष्म बुद्धिको धारण करनेवाले शिक्षक थे || ३६ || अट्ठाईस सौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, तैतालीस सौ विक्रियाऋद्धिको धारण करनेवाले थे, बीस सौ पचपन मन:पर्ययज्ञानी थे ।। ४०-४१ ।। और सोलह सौ श्रेष्ठबादी थे । इस तरह सब मिलाकर पचासहजार मुनिराज उनके साथ थे ॥ ४२ ॥ यक्षिलाको आदि लेकर साठ हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख साठ हजार श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्यात देव थे और संख्यात तिर्यच थे। इस प्रकार इन बारह सभाओंसे घिरे हुए अतिशय बुद्धिमान् भगवान्
१ जनयन् ल० | मानयत् स्व० । २ विलायप्रतिलोकनात् ग० । विलासप्र विलोनात् म० । ३ भूभुनैः त० । ४-मपूपुजत् ०, ग० । प्रमिता म० ।
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