________________
पञ्चषष्टितमं पर्व
द्वीपेऽस्मिन् भारते क्षेत्रे देशोऽस्ति कुरुजाङ्गलः । 'हस्तिनाख्यं पुरं तस्य पतिर्गोत्रेण काश्यपः ॥१४॥ सोमवंशसमुद्भूतः सुदर्शनसमाह्वयः । मित्रसेना महादेवी प्राणेभ्योऽप्यस्य वल्लभा ॥ १५ ॥ वसुधारादिकां पूजां प्राप्य प्रीतानुफल्गुने । मासेऽसिततृतीयायां रेवत्यां निशि पश्चिमे ॥ १६ ॥ भागे जयन्तदेवस्य स्वर्गावतरणक्षणे । दृष्टषोडशसुस्वमा फलं तेषु निजाधिपम् ॥ १७ ॥ अनुयुज्यावधिज्ञानतदुक्तफलसंश्रुतेः । प्राप्तत्रैलोक्यराज्येव प्रासीदत्परमोदया ॥ १८ ॥ " तदा गतामराधीशकृतकल्याणसम्मदा । निर्वृता निर्मदा नित्यरम्या सौम्यानना शुचिः ॥ १९ ॥ संवाह्यमाना देवीभिस्तत्कालोचित 'वस्तुभिः । मेघमालेव सद्गर्भमुद्वहन्ती जगद्धितम् ॥ २० ॥ मार्गशीर्षे सिते पक्षे पुष्ययोगे चतुर्दशी । तिथौ त्रिविधसद्बोधं तनूजमुदपीपदत् ॥ २१ ॥ तस्य जन्मोत्सवस्यालं वर्णनाय मरुद्वराः । यदि स्वर्ग समुद्वास्य " सर्वेऽप्यत्र सजानयः ॥ २२ ॥ अत्यल्पं तृप्तिमापना दीनानाथवनीपकाः । इतीदमिह सम्प्राप्तं यदि तृप्तिं जगत्त्रयम् ॥ २३ ॥ कुन्थुतीर्थेशसन्ताने पल्ये तुर्थांशसम्मिते । सहस्रकोटिवर्षोने तदभ्यन्तरजीवितः ॥ २४ ॥
1
अरो जिनोऽजनि श्रीमानशीतिं चतुरुत्तराम् । वत्सराणां सहस्राणि परमायुः समुद्वहन् ॥ २५ ॥ त्रिशरचापतनूत्सेधः चारुचामीकरच्छविः । लावण्यस्य परा कोटिः सौभाग्यस्याकरः परः ॥ २६ ॥ सौन्दर्यस्य समुद्रोऽयमालयो रूपसम्पदः । गुणाः किमस्मिन् सम्भूताः किं गुणेष्वस्य सम्भवः ॥ २७ ॥ इस तरह प्राप्त हुए भोगोंका उपभोग करता हुआ आयुके अन्तिम भागको प्राप्त हुआ - वहाँ से च्युत होनेके सम्मुख हुआ ॥ १३ ॥
अथानन्तर इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कुरुजांगल नामका देश है। उसके हस्तिनापुर नगरमें सोमवंश में उत्पन्न हुआ काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन राज्य करता था। उसकी प्राणोंसे भी अधिक प्यारी मित्रसेना नामकी रानी थी ।। १४-१५ ।। जब धनपतिके जीव जयन्त विमानके अहमिन्द्रका स्वर्गसे अवतार लेनेका समय आया तब रानी मित्रसेनाने रत्नवृष्टि आदि देवकृत सत्कार पाकर बड़ी प्रसन्नतासे फाल्गुन कृष्ण तृतीयाके दिन रेवती नक्षत्रमें रात्रिके पिछले प्रहर सोलह स्वप्र देखे । सबेरा होते ही उसने अपने अवधिज्ञानी पतिसे उन स्वप्नोंका फल पूछा । तदनन्तर परम वैभवको धारण करनेवाली रानी पतिके द्वारा कहे हुए स्वप्नका फल सुनकर ऐसी प्रसन्न हुई मानो उसे तीन लोकका राज्य ही मिल गया हो ।। १६-१८ ।। उसी समय इन्द्रादि देवोंने जिसके गर्भकल्याणकका उत्सव किया है, जो अत्यन्त संतुष्ट है, मद रहित है, निरन्तर रमणीक है, सौम्य मुखवाली है, पवित्र है, उस समयके योग्य स्तुतियोंके द्वारा देवियां जिसकी स्तुति किया करती हैं, और जो मेघमाला के समान जगत्का हित करनेवाला उत्तम गर्भ धारण करती है ऐसी रानी मित्रसेनाने मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में तीन ! ज्ञानोंसे सुशोभित उत्तम पुत्र उत्पन्न किया ।। १६-२१ ।। उनके जन्म के समय जो उत्सव हुआ था उसका वर्णन करनेके लिए इतना लिखना ही बहुत है कि उसमें शामिल होनेके लिए अपनी-अपनी देवियों सहित समस्त उत्तम देव स्वर्ग खालीकर यहाँ आये थे ॥ २२ ॥ उस समय दीन अनाथ तथा याचक लोग सन्तोषको प्राप्त हुए थे यह कहना बहुत छोटी बात थी क्योंकि उस समय तो तीनों लोक अत्यन्त सन्तोषको प्राप्त हुए थे ॥ २३ ॥ श्री कुन्थुनाथ तीर्थंकरके तीर्थ के बाद जब एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्यका चौथाई भाग बीत गया था तब श्रीअरनाथ भगवान्का जन्म हुआ था । उनकी आयु भी इसी अन्तरालमें शामिल थी। भगवान् अरनाथकी उत्कृष्ट श्रेष्ठतम आयु चौरासी हजार वर्षकी थी, तीस धनुष ऊँचा उनका शरीर था, सुवर्णके समान उनकी उत्तम कान्ति थी, वे लावण्यकी अन्तिम सीमा थे, सौभाग्यकी श्रेष्ठ खान थे, भगवान्को देखकर शङ्का होती थी कि ये सौन्दर्यके सागर हैं या सौन्दर्य सम्पत्तिके घर हैं, गुण इनमें उत्पन्न हुए हैं या इनकी गुणोंमें उत्पत्ति हुई है अथवा ये स्वयं गुणमय हैं-गुणरूप
२१६
१ हास्तिनाख्यं ख०, ग० । २ समुद्भूतसु-ल० । ३ प्रीत्यानु घ०, ल० । ४ प्रसीदत् स० । ५ ततो गता ल० । ६ संस्तुमिः ल० । ७-मुदयीययत् ल० । ८ समुद्धास्य क०, ख०, ग०, घ० । १- जिनश्री - ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org