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महापुराणे उत्तरपुराणम्
शुत्वा तद्वचनं मन्दमिति निश्चित्य तराथा । वधूजनेषु सक्तानाममज्ञानतपसः क्षितिः ॥ ८० ॥ ममोपकारकावेताविति मुक्त्वा द्विजद्वयम् । वश्चितोऽगात्कुधीस्ताभ्यां कन्या 'कुब्जाधिपं प्रति ॥ ८१ ॥ स्थास्नु नाज्ञानवैराग्यमित्यत्राघोषयन्निव । दृष्ट्वा पारतभूपालमात्ममातुलमन्त्रपः ॥ ८२ ॥ आकारेणैव कन्यार्थागमनं स निवेदयन् । आसनद्वयमालोक्य सरागासनमास्थितः ॥ ८३ ॥ निजागमनवृत्तान्तं महीपतिमजीगमत् । तदाकर्ण्य नृपः खेदाद्धिग्धिगज्ञानमित्यमुम् ॥ ८४ ॥ कम्याशतं ममास्त्यत्र या त्वामिच्छति साऽस्तु ते । इत्यवोचदसौ चांगात्कन्यकास्तं निरीक्ष्य ताः ॥ ८५ ॥ अर्द्धदग्धशवं मत्वा तपोदग्धशरीरकम् । जुगुप्सयाsपलायन्त काश्चित्काश्चिद्वयाहिताः ॥ ८६ ॥ श्रीडया पीडितः सोऽपि तास्त्यक्त्वा बालिकां सुताम् । तस्यैवालोक्य मूढात्मा पांसुक्रीडापरायणाम् ॥८७॥ कदलीफलमादर्श्य प्राह मामिच्छतीति ताम् । वाल्छामीत्यब्रुवत्सा च मामियं वान्छतीति ताम् ॥८८॥ " नृपं निवेद्य संगृह्य समायासीद्वनं प्रति । पदं प्रति जनैर्निन्द्यमानो दीनतमो जडः ॥ ८९ ॥ रेणुकीत्यभिधां तस्या विधाय स्वीचकार सः । प्रवृत्तिर्धर्म इत्येषा तदा प्रभृति वागभूत् ॥ ॥ ९० ॥ "बोध श्रद्धा विशेषस्य भेदौ वा तपसो यतेः । बाह्याभ्यन्तरनामानौ तावभूतां सुतौ स्तुतौ ॥ ९१ ॥ इन्द्रः श्वेतश्च रामान्तौ चन्द्रादित्यसमत्विषौ । कामार्थी वा जनाभीष्टौ युक्तौ या नयविक्रमौ ॥ ९२ ॥ "प्रयात्येवं तयोः काले मुनिरन्येयुरागतः । अरिअयोऽग्रजो गेहं रेणुक्यास्तद्दिदृक्षया ॥ ९३ ॥
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उठा रहे हैं ? ॥ ७६ ॥ उसके मन्द वचन सुनकर उस तापसने उसका वैसा ही निश्चय कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रीजनोंमें आसक्त रहनेवाले मनुष्योंके अज्ञान तपकी यही भूमिका है ॥ ८० ॥ 'ये दोनों पक्षी मेरा उपकार करनेवाले हैं' ऐसा समझकर उसने दोनों पक्षियोंको छोड़ दिया । इस प्रकार उन दोनों देवोंके द्वारा ठगाया हुआ दुर्बुद्धि तापस कन्याकुब्ज नगरके राजा पारतकी ओर चला । वह मानो इस बातकी घोषणा ही करता जाता था कि अज्ञानपूर्ण वैराग्य स्थिर नहीं रहता । वहाँ अपने मामा पारतको देखकर उस निर्लज्जने अपने आकार मात्र से ही यह प्रकट कर दिया कि मैं यहाँ कन्याके लिए ही आया हूँ । राजा पारतने उसकी परीक्षाके लिए दो आसन रक्खे - एक रागरहित और दूसरा रागसहित। दोनों आसनों को देखकर वह रागसहित आसन पर बैठ गया ।। ८१-८३ ॥ उसने अपने आनेका वृत्तान्त राजाके लिए बतलाया । उसे सुनकर राजा पारत बड़े खेदसे कहने लगा कि इस अज्ञानको धिक्कार हो, धिक्कार हो ॥ ८४ ॥ फिर राजाने कहा कि मेरे सौ पुत्रियाँ हैं इनमेंसे जो तुझे चाहेगी वह तेरी हो जायगी । राजाके ऐसा कहनेपर जमदमि कन्याओंके पास गया। उनमेंसे कितनी ही कन्याएँ जिसका शरीर तपसे जल रहा है ऐसे जमदग्निको अधजला मुर्दा मानकर ग्लानिसे भाग गई और कितनी ही भयसे पीड़ित होकर चली गई ।। ८५-८६ ।। लज्जासे पीड़ित हुआ वह मूर्ख तापस उन सब कन्याओंको छोड़कर धूलिमें खेलनेवाली एक छोटी-सी लड़कीके पास गया और केलाका फल दिखाकर कहने लगा कि क्या तू मुझे चाहती है ? लड़कीने कहा कि हाँ चाहती हूँ। तापसने जाकर राजासे कहा कि यह लड़की मुझे चाहती है । इस प्रकार वह लड़कीको लेकर वनकी ओर चला गया । पद-पद पर लोग उसकी निन्दा करते थे, वह अत्यन्त दीन तथा मूर्ख था ॥ ८७८६ ॥ जमदग्निने उस लड़कीका रेणुकी नाम रखकर उसके साथ विवाह कर लिया। उसी समय से ऐसी प्रवृत्ति - स्त्रियों के साथ तपश्चरण करना ही धर्म है यह कहावत प्रसिद्ध हुई है ॥ ६० ॥ जिस प्रकार श्रद्धा विशेषके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान उत्पन्न होते हैं अथवा किसी मुनिराजके तपके बाह्यतप और आभ्यन्तर तप ये दो भेद प्रकट होते हैं उसी प्रकार जमदभिके इन्द्र और श्वेतराम नामके दो स्तुत्य पुत्र उत्पन्न हुए। ये दोनों ही पुत्र ऐसे जान पड़ते थे मानो लोगोंको प्रिय काम और अर्थ ही हों अथवा मिले हुए नय और पराक्रम ही हों ।। ६१-६२ ।। इस प्रकार उन दोनोंका
१ कन्यकुब्जा-ल० | २ सन्निवेदयन् क०, ख०, म० । ३ तम् ल० । ४ नृष्यावेद्य ल० । ५ रेणुकात्यमि• १६ बोधो श्रद्धा विशेषस्य भेदो वा तपसः पते ० ७ इन्द्रादित्य ल० । प्रत्यात्येवं स० । ६-यययौ ख० ।
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